Friday, March 12, 2010

कहानी-३२


अभिशप्त
रूपसिंह चन्देल
होश आने पर मुसने अपने को अस्पताल में पाया। आसपास मंडराती नर्सों और पंक्तिबद्ध बिस्तरों पर पड़े मरीजों ने उसके इस विश्वास को पूरी तरह पुख्ता कर दिया कि वह अस्पताल में ही है। लेकिन क्यों ? कैसे पहुंचा अस्पताल ! मस्तिष्क भली-भांति काम नहीं कर रहा था. आंखों के आगे चारों ओर काले-काले धब्बे-से उभरते-मिटरे महसूस हो रहे थे. उसने आंखें बन्द कर लीं और सोचने का प्रयत्न करने लगा-- क्या हुआ है उसे ? काफी देर सोचने के बाद भी उसकी समझ में कुछ नहीं आया. उसने करवट लेनी चाही, पैरों ने विद्रोह कर दिया. असह्य पीड़ा से वह छटपटा पड़ा . दो नर्सें दौड़ी आयीं।
"मिस जॉन---जल्दी----इंजेक्शन ----अच्छा---तुम इधरी रहना---मैं अभी आयी----। " दो महिला स्वर ----शायद नर्सें हैं। उसने अनुभव किया।
दर्द कुछ कम हुआ तो उसने आंखें खोलीं। देखा, एक नर्स खड़ी है। उसके पास ही आंसू बहाती पत्नी को देख वह और अधिक आश्चर्यचकित हो उठा। आंसू पोंछकर पत्नी उसके सिरहाने स्टूल पर बैठ गयी और पूछने लगी, "तबीयत कैसी है अब ?" "मैं यहां क्यों हूं, नमिता ?" किसी तरह वह पूछ सका। नमिता की हिचकियां फिर बंध गयीं. नर्स ने डांट दिया, "तुम्हार इस तरह रोने से मरीज का दिल घबराएगा." नमिता ने होंठ भींचपर आंखें पोंछ डालीं. दूसरी नर्स इंजेक्शन ले आयी थी. दोनों ने मिलकर उसकी बांह पर इंजेक्शन घोंप दिया और जाते-जाते नमिता को हिदायत देती गईं कि रोने की जरूरत नहीं है---कोई बात हो तो वे सामने बैठी हैं---आकर बता दे. इंजेक्शन से उसे राहत मिली. दर्द कुछ और कम हुआ तो उसने फिर करवट लेनी चाही, लेकिन नमिता ने मना कर दिया, "पैरों पर प्लास्टर चढ़ा है---ऎसे ही लेटे रहो." "प्लास्टर---?" अब वह समझ सका कि पैर क्यों नहीं हिल रहे. उसने कबल के नीचे हि नीचे छूकर देखा, गांठों के नीचे प्लास्टर था. "यह सच कैसे हुआ, नमिता? " "कल सुबह----दफ्तर जाते समय---बस से ." नमिता ने आंखें छिपाते हुए कहा, "वह तो अच्छा था कि तुम्हारे दफर के कोई सज्जन थे बस में ----उन्होम्ने तुम्हें यहां----औरमुझे खबर दी थी." एक दीर्घ निश्चास ले उसने आंखें बन्द कर लीं. धीरे-धीरे उस दिन सुबह का दृश्य मस्तिष्क-पटल पर उभरने लगा. ***** उस दिन जब वह आई.टी.ओ. के स्टाप पर पहुंचा, तो नौ बज चुके थे. पीछे से वह जिस बस से आया था, उसे शांतिवन के पास लगभग पन्द्रह मिनट रुकना पड़ा था. खबर थी कि एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष देसी नेताओं के साथ रजघाट पहुंचने वाले हैं. जब तक वे पहुंच न जाएगें, बस रुकी रहेगी. बाहर दोनों ओर फुटपाथों पर तैनात पुलिस दोनों देशोम के नेताओं की सुरक्षा का भार वहन करने की कल्पना से गौरवान्वित अनुभव करती दिखाई दे रही थी और बस के अन्दर यात्री दफ्तर पहुंचने में हो रहे विलम्ब के लिए व्यवस्था को कोस रहे थे. कुछ खुलकर तो कुछ मन ही मन. वह भी उनमें शामिल था और मन ही मन ;सोच रहा था आज निश्चित ही उसके हाजिरी के कोष्ठक में प्रशासनिक अधिकारी निर्ममतापूर्वक लाल स्याही से ’एल’ यानी ’लेट’ ;आनी ’विलम्ब’ लगा देगा और विलम्ब से पहुंचने के उसके कारण को अनुसुना कर बनैले सुअर की तरह उसे घुड़कते हुए ’इनीशियल’ के नीचे समय डाल देने के लिए कहेगा. प्रशासन महीने मेम दो विलम्ब तो प्रार्थना करने पर माफ कर देता है, लेकिन दो से ऊपर होने पर ’आकस्मिक अवकाश’ की कटौती शुरू कर देता है. "पांच दिन का सप्ताह करने का निर्णय व्यक्तिवादी और एक्पक्षीय है---पत्थरों की ऊंची दीवारों के अन्दर बैठकर जीवन की तमाम निश्चितंताओं को भो़गते हुए ऎसे अव्यावहारिक निर्णय लेने वालों को क्या पता कि कर्मचारियों का जीवन अब मात्र दफ्तर में ही सिमटकर रह गया है. सुबह पांच बजे से रात आठ बजे तक का समय वह दह्तर के लिए खर्च कर देता है, शेष में से कितना समय वह दे पाता है अपने परिवार को----." "ऊपर से खाज की कोढ़ की तरह ’पे कमीशन’ की रपट के लिए बनी ’रिव्यू कमेटी’ की सिफारिश पर आधा घंटा समय और बढ़ाकर सरकार ने अपनी बौद्धिक कुशलता का परिचय दिया है. नौकरी देकर सरकार ने जो उपकार आप सब पर किया है उसके बदले बैठो दफ्तर में सुबह से शाम छः बजे तक----काम भले ही न करोम लेकिन बैठना पड़ेगा--- क्योंकि राष्ट्र की प्रगति आपके जिम्न्मे है---" "और मौजमस्ती उनके जिम्मे----टूर प्रोग्राम के नाम पर करोड़ों उड़ा रहे हैं----." हा---हा----हा---एक ठहाका उससे आगे सीट अप्र गूंजा तो वह चौंक उठा. "यह भी कोई कहने की बात है. अगर तौफीक हो तो दस-बीस लाख रुपए खून करके ---दस-पन्द्रह की हत्या करवाकर आप भी उनके बीच क्यों नहीं पहुंच जाते----पांच साल तो मस्ती लोगो ही----बाद में पेंशन---किसने कहा था बाबूगिरी करने के लिए." "देखो, कोई कुछ भी कहे----मैं तो यह मानता हूं कि नए चोले में सामन्तशाही शासन-व्यवस्था आज भी कार्यरत है---नहिं तो इस प्रकार के निर्ण्रय का शिकार आम आदमी क्यों होता रहता." "अरे भाई----आप अब इक्कीसवीं सदी में जा रहे हैण न---! "एक और ठहाका. "इद्दीसवी में जाने के बजाए अठरहवी में जा पहुंचेगे----सोचने की बात है----आप में कितने ही ऎसे हैं जो दिल्ली मं ही रहकर साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंचने के लिए सुबह साढे़ छः बजे घर से निकलते हैं और रात साढ़े आठ -नौ बजे घर वापस पहुंचते हैं. न तो सुबह बच्चों को समय दे पाते हैं और न शाम. काम काजी महिलाओं की स्थिति तो और भी दयनीय है---शनिवार और अरविवार के दिन घरेलू कामों और थकान मिटाने में खर्च हो जाते हैं----आप बच्चों की ओर ध्यान नहीम दे पाते---- उन्हें पढ़-लिखा नहीं सकते---वे पढ़ने में कमजोर होते जाएगें. ---आवारा होंगे और जब एक समग्र पीढ़ी बौद्धिक रूप से पंगु हो जाएगी तब देश कहाम जाएगा---बीस प्रतिशत लोगों के बच्चों के बल पर इक्कीसवीं सदी में पहुंचने की कल्पना करना बौद्धिक दिवालिएपन के अतिरिक्त कुछ नहीं है." एल ने लंबा भाषण दे डाला तो क्षण भर के लिए बस में सन्नाटा छा गया. "भाई साहब, यह सब पूंजीवाद बनाम नेतावाद और अफसरवाद का एक नियिजित षड्यंत्र है----वे आम आदमी को इतना व्यस्त रखना चाहते हैं, जिससे वह उनकी कारगुजारियों के बारे में सोच न सके---क्योंकि यदि उसे सोचने का वक्त मिलता है तो उसके सोच का दूरगामी परिणाम क्या हो सकता है----इसे ’वे’ भली-भांति जानते हैं---- इसीलिए उसे रोटी, कपड़ा आदि जरूरत की चीजें जुटाने---खा-पीकर सो जाने में ही वे व्यस्त रखना हितकर समझते हैं." "लेकिन भावी पीढ़ी का---." "अरे, आप इतना भी नहीं समजते---" एक ने बीच में ही उसे टोका, "यह तो उनकी प्रारंभिक नीति ही है कि बाबू का बेटा बाबू ही बने---- और पिता की तरह ही जीवन से जूझता हुआ अपने बेटे को बाबू बनाने के साधन जुटाता रहे---तभी तो संगमरमरी दीवारों के भव्य भवनों में सदियों तक वे और उनकी संतानें सुरक्षित रंगरेलियां मनाती रह सकती हैम----दरअसल हम सब अभिशप्त हैं उनके हाथ का खिलौना बनने के लिए." "शायद आप ठीक कह रहे हैं---नहीम तो विदेशों में भी पांच दिन का सप्ता है, लेकिन वहां कार्य के घंटे इतने अधिक नहीं----अपरान्ह के बाद सभी अपना समय अपने ढंग से व्यतीत करते हैं ---अधिक समय दफ्तर में बैठाकर अधिक काम नहीं करवाया जा सकता." "हाई, वे इस मनोवैज्ञानिक सत्य को झुठलाने की कोशिश कर अरहे हैं कि अपनी कार्यक्षमता से अधिक कोई भी काम नहीं कर सकता---." अचानक लोग शाम्त हो गए. बाहर वाहनों की चीख-पुकार शुरू हो गयी थी. राष्ट्राध्यक्षा शायद राजघाट पहुंच चुके थे. बस धीरे-धीरे रेंगने लगी तो उसे भी कुछ राहत महसूस हुई थी. ****आई.टी.ओ. पहुंचकर उसने समज लिया कि अब वह समय पर दफ्तर नहीख्म पहुंच सकता. फिर भी यह उसकी इस माह की दूसरी ’लेट’ होगी, सोचकर बस की प्रतीक्षा करने लगा. बार-बार घड़ी पर उसकी नजर चली जाती और तेज चलती सेकंड की सुई के साथ ही उसकी बेचैनी भी तीव्र हो उथती. नौ बजकर दस मिनट के लगभग बस आती दिखाई दी. भीड़ में धक्कम-धक्का शुरू हो गया. भैंस की तरह हांफती हुई बस आकर रुकी तो वह लोगों को धकियाता हुआ लपका. बस इतनी भरी हुई थी कि लोग पहले से ही डंडे पकड़े लटक रहे थे. एक बार उसकी इच्छा हुई कि छोड़ दे उस बस को---दूसरी से चला जाए. अधिक देर होगी तो आधी सी.एल. ले लेगा. लेकिन तत्क्षण याद आया कि ’सी.एल." भी तो एक ही है और अभी शेष हैं दो महीने. किसी प्रकार एक पैर टिकाकर वह भी एक डंडे के सहारे लटक गया. बस किसी गर्भवरी महिला की भांति धीरे-धीरे रेंगने लगी तो उसे लगा कि लटककर जाना जोखिम भरा है---अभी भी वक्त है--- या तो वह कूद जाए या ऊपर हो ले. बस गति पकड़ती जा रही थी, इसलिए कूदना संभव न था. वह एक हाथ से गेट पर खड़े लोगों को अन्दर की ओर धकियाने लगा, जिससे वह कुछ ऊपर हो सके. लेकिन लोग इस तरह ठुंसे थे कि कोई हिल तक न रहा था. इसी प्रक्रिया में वह सन्तुलन खो बैठा---और---और सड़क पर जा गिरा. उसके बाद उसे होश नहीं रहा . "डॉक्टर कह रहे थे , आपके दोनों पैरों में फ्रैक्चर हो गया है---ठीक होने में दो महीने लग जाएगें." नमिता उसके सिर पर हाथ फेरती हुई कह रही थी. वह कुछ नहीं बोला. केवल नमिता की ओर देखता रहा
(१९८७)
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