Friday, March 12, 2010

कहानी-३२


अभिशप्त
रूपसिंह चन्देल
होश आने पर मुसने अपने को अस्पताल में पाया। आसपास मंडराती नर्सों और पंक्तिबद्ध बिस्तरों पर पड़े मरीजों ने उसके इस विश्वास को पूरी तरह पुख्ता कर दिया कि वह अस्पताल में ही है। लेकिन क्यों ? कैसे पहुंचा अस्पताल ! मस्तिष्क भली-भांति काम नहीं कर रहा था. आंखों के आगे चारों ओर काले-काले धब्बे-से उभरते-मिटरे महसूस हो रहे थे. उसने आंखें बन्द कर लीं और सोचने का प्रयत्न करने लगा-- क्या हुआ है उसे ? काफी देर सोचने के बाद भी उसकी समझ में कुछ नहीं आया. उसने करवट लेनी चाही, पैरों ने विद्रोह कर दिया. असह्य पीड़ा से वह छटपटा पड़ा . दो नर्सें दौड़ी आयीं।
"मिस जॉन---जल्दी----इंजेक्शन ----अच्छा---तुम इधरी रहना---मैं अभी आयी----। " दो महिला स्वर ----शायद नर्सें हैं। उसने अनुभव किया।
दर्द कुछ कम हुआ तो उसने आंखें खोलीं। देखा, एक नर्स खड़ी है। उसके पास ही आंसू बहाती पत्नी को देख वह और अधिक आश्चर्यचकित हो उठा। आंसू पोंछकर पत्नी उसके सिरहाने स्टूल पर बैठ गयी और पूछने लगी, "तबीयत कैसी है अब ?" "मैं यहां क्यों हूं, नमिता ?" किसी तरह वह पूछ सका। नमिता की हिचकियां फिर बंध गयीं. नर्स ने डांट दिया, "तुम्हार इस तरह रोने से मरीज का दिल घबराएगा." नमिता ने होंठ भींचपर आंखें पोंछ डालीं. दूसरी नर्स इंजेक्शन ले आयी थी. दोनों ने मिलकर उसकी बांह पर इंजेक्शन घोंप दिया और जाते-जाते नमिता को हिदायत देती गईं कि रोने की जरूरत नहीं है---कोई बात हो तो वे सामने बैठी हैं---आकर बता दे. इंजेक्शन से उसे राहत मिली. दर्द कुछ और कम हुआ तो उसने फिर करवट लेनी चाही, लेकिन नमिता ने मना कर दिया, "पैरों पर प्लास्टर चढ़ा है---ऎसे ही लेटे रहो." "प्लास्टर---?" अब वह समझ सका कि पैर क्यों नहीं हिल रहे. उसने कबल के नीचे हि नीचे छूकर देखा, गांठों के नीचे प्लास्टर था. "यह सच कैसे हुआ, नमिता? " "कल सुबह----दफ्तर जाते समय---बस से ." नमिता ने आंखें छिपाते हुए कहा, "वह तो अच्छा था कि तुम्हारे दफर के कोई सज्जन थे बस में ----उन्होम्ने तुम्हें यहां----औरमुझे खबर दी थी." एक दीर्घ निश्चास ले उसने आंखें बन्द कर लीं. धीरे-धीरे उस दिन सुबह का दृश्य मस्तिष्क-पटल पर उभरने लगा. ***** उस दिन जब वह आई.टी.ओ. के स्टाप पर पहुंचा, तो नौ बज चुके थे. पीछे से वह जिस बस से आया था, उसे शांतिवन के पास लगभग पन्द्रह मिनट रुकना पड़ा था. खबर थी कि एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष देसी नेताओं के साथ रजघाट पहुंचने वाले हैं. जब तक वे पहुंच न जाएगें, बस रुकी रहेगी. बाहर दोनों ओर फुटपाथों पर तैनात पुलिस दोनों देशोम के नेताओं की सुरक्षा का भार वहन करने की कल्पना से गौरवान्वित अनुभव करती दिखाई दे रही थी और बस के अन्दर यात्री दफ्तर पहुंचने में हो रहे विलम्ब के लिए व्यवस्था को कोस रहे थे. कुछ खुलकर तो कुछ मन ही मन. वह भी उनमें शामिल था और मन ही मन ;सोच रहा था आज निश्चित ही उसके हाजिरी के कोष्ठक में प्रशासनिक अधिकारी निर्ममतापूर्वक लाल स्याही से ’एल’ यानी ’लेट’ ;आनी ’विलम्ब’ लगा देगा और विलम्ब से पहुंचने के उसके कारण को अनुसुना कर बनैले सुअर की तरह उसे घुड़कते हुए ’इनीशियल’ के नीचे समय डाल देने के लिए कहेगा. प्रशासन महीने मेम दो विलम्ब तो प्रार्थना करने पर माफ कर देता है, लेकिन दो से ऊपर होने पर ’आकस्मिक अवकाश’ की कटौती शुरू कर देता है. "पांच दिन का सप्ताह करने का निर्णय व्यक्तिवादी और एक्पक्षीय है---पत्थरों की ऊंची दीवारों के अन्दर बैठकर जीवन की तमाम निश्चितंताओं को भो़गते हुए ऎसे अव्यावहारिक निर्णय लेने वालों को क्या पता कि कर्मचारियों का जीवन अब मात्र दफ्तर में ही सिमटकर रह गया है. सुबह पांच बजे से रात आठ बजे तक का समय वह दह्तर के लिए खर्च कर देता है, शेष में से कितना समय वह दे पाता है अपने परिवार को----." "ऊपर से खाज की कोढ़ की तरह ’पे कमीशन’ की रपट के लिए बनी ’रिव्यू कमेटी’ की सिफारिश पर आधा घंटा समय और बढ़ाकर सरकार ने अपनी बौद्धिक कुशलता का परिचय दिया है. नौकरी देकर सरकार ने जो उपकार आप सब पर किया है उसके बदले बैठो दफ्तर में सुबह से शाम छः बजे तक----काम भले ही न करोम लेकिन बैठना पड़ेगा--- क्योंकि राष्ट्र की प्रगति आपके जिम्न्मे है---" "और मौजमस्ती उनके जिम्मे----टूर प्रोग्राम के नाम पर करोड़ों उड़ा रहे हैं----." हा---हा----हा---एक ठहाका उससे आगे सीट अप्र गूंजा तो वह चौंक उठा. "यह भी कोई कहने की बात है. अगर तौफीक हो तो दस-बीस लाख रुपए खून करके ---दस-पन्द्रह की हत्या करवाकर आप भी उनके बीच क्यों नहीं पहुंच जाते----पांच साल तो मस्ती लोगो ही----बाद में पेंशन---किसने कहा था बाबूगिरी करने के लिए." "देखो, कोई कुछ भी कहे----मैं तो यह मानता हूं कि नए चोले में सामन्तशाही शासन-व्यवस्था आज भी कार्यरत है---नहिं तो इस प्रकार के निर्ण्रय का शिकार आम आदमी क्यों होता रहता." "अरे भाई----आप अब इक्कीसवीं सदी में जा रहे हैण न---! "एक और ठहाका. "इद्दीसवी में जाने के बजाए अठरहवी में जा पहुंचेगे----सोचने की बात है----आप में कितने ही ऎसे हैं जो दिल्ली मं ही रहकर साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंचने के लिए सुबह साढे़ छः बजे घर से निकलते हैं और रात साढ़े आठ -नौ बजे घर वापस पहुंचते हैं. न तो सुबह बच्चों को समय दे पाते हैं और न शाम. काम काजी महिलाओं की स्थिति तो और भी दयनीय है---शनिवार और अरविवार के दिन घरेलू कामों और थकान मिटाने में खर्च हो जाते हैं----आप बच्चों की ओर ध्यान नहीम दे पाते---- उन्हें पढ़-लिखा नहीं सकते---वे पढ़ने में कमजोर होते जाएगें. ---आवारा होंगे और जब एक समग्र पीढ़ी बौद्धिक रूप से पंगु हो जाएगी तब देश कहाम जाएगा---बीस प्रतिशत लोगों के बच्चों के बल पर इक्कीसवीं सदी में पहुंचने की कल्पना करना बौद्धिक दिवालिएपन के अतिरिक्त कुछ नहीं है." एल ने लंबा भाषण दे डाला तो क्षण भर के लिए बस में सन्नाटा छा गया. "भाई साहब, यह सब पूंजीवाद बनाम नेतावाद और अफसरवाद का एक नियिजित षड्यंत्र है----वे आम आदमी को इतना व्यस्त रखना चाहते हैं, जिससे वह उनकी कारगुजारियों के बारे में सोच न सके---क्योंकि यदि उसे सोचने का वक्त मिलता है तो उसके सोच का दूरगामी परिणाम क्या हो सकता है----इसे ’वे’ भली-भांति जानते हैं---- इसीलिए उसे रोटी, कपड़ा आदि जरूरत की चीजें जुटाने---खा-पीकर सो जाने में ही वे व्यस्त रखना हितकर समझते हैं." "लेकिन भावी पीढ़ी का---." "अरे, आप इतना भी नहीं समजते---" एक ने बीच में ही उसे टोका, "यह तो उनकी प्रारंभिक नीति ही है कि बाबू का बेटा बाबू ही बने---- और पिता की तरह ही जीवन से जूझता हुआ अपने बेटे को बाबू बनाने के साधन जुटाता रहे---तभी तो संगमरमरी दीवारों के भव्य भवनों में सदियों तक वे और उनकी संतानें सुरक्षित रंगरेलियां मनाती रह सकती हैम----दरअसल हम सब अभिशप्त हैं उनके हाथ का खिलौना बनने के लिए." "शायद आप ठीक कह रहे हैं---नहीम तो विदेशों में भी पांच दिन का सप्ता है, लेकिन वहां कार्य के घंटे इतने अधिक नहीं----अपरान्ह के बाद सभी अपना समय अपने ढंग से व्यतीत करते हैं ---अधिक समय दफ्तर में बैठाकर अधिक काम नहीं करवाया जा सकता." "हाई, वे इस मनोवैज्ञानिक सत्य को झुठलाने की कोशिश कर अरहे हैं कि अपनी कार्यक्षमता से अधिक कोई भी काम नहीं कर सकता---." अचानक लोग शाम्त हो गए. बाहर वाहनों की चीख-पुकार शुरू हो गयी थी. राष्ट्राध्यक्षा शायद राजघाट पहुंच चुके थे. बस धीरे-धीरे रेंगने लगी तो उसे भी कुछ राहत महसूस हुई थी. ****आई.टी.ओ. पहुंचकर उसने समज लिया कि अब वह समय पर दफ्तर नहीख्म पहुंच सकता. फिर भी यह उसकी इस माह की दूसरी ’लेट’ होगी, सोचकर बस की प्रतीक्षा करने लगा. बार-बार घड़ी पर उसकी नजर चली जाती और तेज चलती सेकंड की सुई के साथ ही उसकी बेचैनी भी तीव्र हो उथती. नौ बजकर दस मिनट के लगभग बस आती दिखाई दी. भीड़ में धक्कम-धक्का शुरू हो गया. भैंस की तरह हांफती हुई बस आकर रुकी तो वह लोगों को धकियाता हुआ लपका. बस इतनी भरी हुई थी कि लोग पहले से ही डंडे पकड़े लटक रहे थे. एक बार उसकी इच्छा हुई कि छोड़ दे उस बस को---दूसरी से चला जाए. अधिक देर होगी तो आधी सी.एल. ले लेगा. लेकिन तत्क्षण याद आया कि ’सी.एल." भी तो एक ही है और अभी शेष हैं दो महीने. किसी प्रकार एक पैर टिकाकर वह भी एक डंडे के सहारे लटक गया. बस किसी गर्भवरी महिला की भांति धीरे-धीरे रेंगने लगी तो उसे लगा कि लटककर जाना जोखिम भरा है---अभी भी वक्त है--- या तो वह कूद जाए या ऊपर हो ले. बस गति पकड़ती जा रही थी, इसलिए कूदना संभव न था. वह एक हाथ से गेट पर खड़े लोगों को अन्दर की ओर धकियाने लगा, जिससे वह कुछ ऊपर हो सके. लेकिन लोग इस तरह ठुंसे थे कि कोई हिल तक न रहा था. इसी प्रक्रिया में वह सन्तुलन खो बैठा---और---और सड़क पर जा गिरा. उसके बाद उसे होश नहीं रहा . "डॉक्टर कह रहे थे , आपके दोनों पैरों में फ्रैक्चर हो गया है---ठीक होने में दो महीने लग जाएगें." नमिता उसके सिर पर हाथ फेरती हुई कह रही थी. वह कुछ नहीं बोला. केवल नमिता की ओर देखता रहा
(१९८७)
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Saturday, January 16, 2010

कहानी-३१



खतरा
रूपसिंह चन्देल
बंबे (नहर) के पुल से उतरते ही पगडंडी पर आ गया । परिचित टेढ़ी-मेढ़ी , केंचुल चढ़ी सर्पिणी-सी , रज्जू पासी के बाग और राजाराम , गुलाब सिंह के खेतों की मेड़ों से गुजरती वह पगडंडी गड़हा नाला पार कर हिरनगांव स्टेशन तक जाती थी । स्टेशन बंबे से बमुश्किल एक मील था ।
पगडंडी पर उतरने से पहले कुछ देर पुल पर खड़ा सोचता रहा था , 'पगडंडी से जाना ठीक होगा या सड़क के रास्ते ।' खतरा दोनो ही ओर हो सकता था । 'वह' कब कहां टकरा जाए , कहना कठिन था । पुल के नीचे बंबा जहां विराम लेता था , तीन आदमी फावड़ों से कुचिला मिट्टी इकट्ठा कर रहे थे । पगडंडी से कुछ हटकर बैलगाड़ी खड़ी थी । नहर में पानी नहीं था और सड़ी मछलियों और कूड़े की गंध से नथुने फटने लगे थे । सोचा , उन लोगों से पूछ लेना चाहिए.... कोई गया तो नहीं पगडंडी के रास्ते , लेकिन मैं अपने को कमजोर नहीं दिखाना चाहता था । चुप रहा ।
रज्जू के बाग के पास पतली नाली थी, जिससे बहकर बंबे का पानी पांडुनदी में जाता था । नाली के दोनों ओर शीशम के पेड़ थे । पेड़ों के तनों से सटी झाड़ियों के झुरमुट थे । बाग के बीच खिरनी का बूढ़ा पेड़ था । बचपन में उसकी पीली खिरनियां चोरी करते कितनी ही बार हमने रज्जू से डंाट खाई थी । मौसम होने पर भी पेड़ खाली फल रहित किसी पादरी की भांति खड़ा था । अभी सुबह के नौ ही बजे थे , किन्तु गर्मी की तपिश महसूस होने लगी थी । खिरनी के पेड़ के पास रुककर पसीना पोंछा । चारों ओर नजर दौड़ाई । कोई आता-जाता नहीं दिखा । दूर-दूर तक नंगे खेत खडे थे । सड़क के किनारे एक खेत में कुछ जानवर ठूठियां चिंचोड़ते दिखे । मेरी दृष्टि शीशम के पेड़ों के पास झाड़ियों की झाुरमुट पर फंस गई । सिर को झटका--'कितने पुराने हैं ये शाीशम के पेड़....तपस्वियों की भांति मौन-निर्द्वंद्व खड़े ।' मन को भयमुक्त करने के लिए ध्यान को शीशम के दरख्तों पर केन्द्रित करना चाहा , किन्तु रह-रहकर आंखें झाड़ियों के अंदर कुछ टटोलने लगतीं । पैर आगे बढ़ने से इनकार करने लगे । लगा खतरा मात्र दस कदम दूरी पर है । एक बार फिर इधर-उधर देखा , इस आशा से कि शायद कोई राहगीर दिखाई दे जाए , लेकिन सर्वत्र सन्नाटा । लगा , सभी ने पहले से ही खतरे को पहचान लिया था । अपने पर कोफ्त हुई । 'मुझे क्या पड़ी थी खेत देखने आने की और वह भी जून की प्रचंड तपिश में.... जब खेत खाली थे ।' लेकिन , शहर से चलते समय ही मन में एक योजना थी .... आने वाली बरसात में गड़हा नाले के साथ के खेतों को सममतल करवाकर मेड़ें बंधवाने की । अभी देखकर काम और खर्च का आकलन आवश्यक था । बटाईदार की सूचना पर भरोसा नहीं था । गांव से उखड़कर शहर में जा टिकने वाले मुझ जैसे लोगों की यह विवशता होती है .... जब अवसर पाया गांव आए और एक-दो दिन टिककर खेत-खलिहान का हिसाब निबटाया , बटाईदार को काम सौंपा और फिर चार-छह महीनों के लिए गायब । न गांव का मोह त्याग पाते हैं और न शहर की जिंदगी । त्रिशंकु की भांति बंटी जिंदगी जीते लोग.... गांव आते ही कम समय में अधिक काम निबटा लेने की चिंता से ग्रस्त ।
क्षण मात्र के लिए झाड़ी से हटा दिमाग उसमें हो रही हलचल से फिर वहीं स्थिर हो गया । लगा 'वह' मुझे ही निशाना बनाकर पोजीशन ले रहा है । हो सकता है , बीच का जामुन का पेड़ उसके लिए व्यवधान बन रहा हो । मुझे इस बात का लाभ उठाना चाहिए । खिरनी के पेड़ की ओट में जाकर नाक की सीध में गंगुआ तेली के बगीचे की ओर से सड़क की ओर भाग लेना चाहिए । सड़क पर तो लोग आ-जा रहे ही होंगे । सब मेरी तरह मूर्ख थोड़े ही हैं । अब यही एक उपाय था कि मैं उसके संभावित हमले से अपने को बचा सकता था । झाड़ी में अभी भी खुरखुराहट जारी थी और मेरा मस्तिष्क तीव्र गति से निर्णय के लिए सक्रिय हो उठा था , लेकिन तभी एक चित्तकबरा कुत्ता झाड़ी से सिर उचकाता दिखाई दिया । दिमाग ठहर गया , लेकिन मन आश्वस्त नहीं हुआ ।
'उसकी कोई चाल हो सकती है ।'
मेरे बटाईदार गणपत ने गांव में घुसते ही उसके विषय में जो कुछ बताया था , वह थर्रा देने वाला था ।
'अपने शिकार पर' , गणपत ने कहा था , 'जिस पर वार करता है उसे 'वह' शिकार ही कहता है .... और अपने शिकार पर वह इस खूबसूरती से झपटता है , जैसे तेंदुआ .... बचाव के लिए समय तक नहीं देता । आदमी सोच भी नहीं सकता कि दुबला-पतला , मरियल-सा दिखने वाला 'वह' इतना खतरनाक हो सकता है ।'
'पेशेवर है ?'
'न भइया ....भले घर का भला लड़का .... लेकिन....।'
'लेकिन क्यों ?'
गणपत चुप रहा तो मैंने टोका , 'चुप क्यों हो गए !'
मेरी ओर देखता हुआ वह बोला , 'वही हर गांव की एक ही कहानी .....फूलत-फलत घर अउर पढ़त -लिखत लड़का गांव के खुड़पेंची लोगन की आंखन मा चुभेै लागत है । उई चाहत हैं कि सबै उनकी तरह गंवार-पिछड़े रहैं .... बस , यही बात ओहके साथै भई । ऊ लड़का गांव-वालेन के षडयंत्र का शिकार हुआ अउर अब .... ओह उनके खातिर खरनाक होई गवा है । हिरनगांव के पांच लोगन को निशाना बना चुका है ।'
मैं सोचने लगा था गांवों के बदलते चरित्र के विषय में । चालीस-पैंतालीस वर्ष पहले का गांव आंखों के समक्ष उभरने लगा था । वीरभद्र तिवारी का बड़ा बेटा हरीश जब आठवीं की बोर्ड परीक्षा में जिले में तीसरा स्थान पाकर उत्तीर्ण हुआ तो सारे गांव ने उसे सिर माथे पर बैठाया था । हरीश आठवीं से आगे पढ़ने वाला गांव का पहला लड़का था । तिवारी गरीब ब्राम्हण थे .... कथा-पत्रा बांच गुजारा करने वाले । बेटे को भी अपनी भांति ही बनाना चाहते थे , किंतु गांव वालों ने उन्हें वैसा नहीं करने दिया था । जगत सिंह ने हरीश का बारहवीं तक का खर्य ओढ़ लिया था । गांव पंचायत ने भी खर्च उठाने का जिम्मा ले लिया था । दो वर्ष तक हरीश ने सहायता ली , उसके बाद उसने टयूशन कर ली थी । हरीश पढ़कर इनकमटैक्स अधिकारी बना तो, गांव के हर घर को लगा था कि उनके घर का ही कोई लड़का अफसर बना है । उस दौरान हरीश से प्रेरण ले कई लड़के आगे आए थे और शहर जाकर अच्छी नौकरियों से जुड़े थे , लेकिन कुछ वर्षों तक ही चला था यह सिलसिला ।
'अब तो 'वह' हर उस आदमी पर झपटने लगा है , जेहके पास कुछ होंय की उम्मीद होती है ।' गणपत बोला तो मै अचकचाकर उसकी ओर देखने लगा । 'आप आए हौ तो खेतन की तरफ जरूर जइहौ ।'
मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया ।
'संभल के जायो भइया....।'
'क्यों मुझे उससे क्या खतरा ! वह तो मुझे जानता भी नहीं....फिर ?'
'बतावा न ....।' कुछ रुका गणपत, 'अब सही-गलत की समझ नहीं रही ओहका । अउर लरिका ही तो ठहरा । उमिर ही का है ओहकी.... अठारह-उन्नीस । शुरू मां अपने गांव के उन लोगन को ही निशाना बनाया उसने, जिनके कारण ओहका यो राह पकड़ैं का पड़ी । पर ऊ सब ठहरे काइयां .... कई सरकि गए इधर-उधर । कुछ ते उसने मोटी रकमें उगाही .... पर अब ....अब रुपिया की कीमत अउर मौज-मस्ती की आदत....कुछ दिन ते उसने कई अपरिचितन पर भी हमला बोला ....मझगांव के ओहकी उमिर के तीन लरिका अब ओहके साथ मिलि गए हैं । ऊ तो पहले ते ही बदमाश रहैं ... अब ओहके साथ उनकी नफरी अधिकौ बन रही है । लेकिन ,दिन मां 'वो' रहत अकेले ही है अउर वारदात भी अकेले ही करत हैं ....।'
कुत्ता झाड़ी से निकलकर पगडंडी पर स्टेशन की ओर चल पड़ा था । मुझे ऐसा लगा ,जैसे कोई बड़ा हादसा होते-होते टल गया है । दिल की धड़कन धीमी होने लगी थी । शीशम के पेड़ के नीचे की झाड़ियां शांत दिखीं--स्थितप्रज्ञ । बंबे के पुल पर उन तीनों आदमियों का शोर सुनाई पड़ा । कुचिला मिट्टी से भरी बैलगाड़ी पुल पर चढ़ नहीं पा रही थी । दो आदमी पीछे से गाड़ी को धकिया रहे थे और तीसरा बैलों को औगी से हांक रहा था और बैल कंधे झुकाए पूरी ताकत लगाकर एक कदम आगे बढ़ाते तो दो कदम पीछे खिसक जाते ।
सामने ठुंठियाये खेतों पर नजर डाली । दूर-दूर तक खाली मैदान दिखा । गर्मी का प्रभाव बढ़ गया था और खेतों पर लहलहाती धूप आंखों में चुभ रही थी । हवा सनाका साधे हुए थी ।
पगडंडी पर निर्द्वंद्व बढ़ता कुत्ता आंखों से ओझल होता जा रहा था । पास के आम के पेड़ पर
कोयल कूक रही थी और मैं खेतों पर जाने-न-जाने के उहापोह में अभी भी फंसा हुआ था ।
'उसका' भय मन में घर कर चुका था । खतरा टला नहीं था ।
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हिरनगांव के जिस घर का था 'वह' , गणपत के बताते ही उस घर के सदस्यों के चेहरे मेरी आंखों के सामने तैरने लगे थे । तीन भाइयों का परिवार था वह । शीतल ,शिवमंगल और शिशुपाल पांडे । हिरनगांव में ही नहीं आस-पास के दस गांवों में वह 'पांडे परिवार' के नाम से जाना जाता था । उनके खेत स्टेशन से लगे हुए थे और उनमें अच्छी पैदावार होती थी । शीतल पांडे बजाजी करते थे और सप्ताह में दो बार पुरवामीर की बाजार में दुकान लगाते थे । मेरे घर के कपड़े उन्हीं की दुकान से आते थे और इसी कारण मैं उनके परिवार के विषय में जानता था । शीतल ने छोटे स्तर पर बजाजी शुरू की थी । साइकिल पर कपड़े लादकर बाजार आने वाले पांडे ने व्यावसायिक कुशलता और व्यहवार के कारण कुछ ही वर्षों में तांगा खरीद लिया था । व्यापार चल निकला था, लेकिन शीतल नि:संतान थे । इसका उन्हें दु:ख भी नहीं था , क्योंकि उनके दूसरे भाई शिवमंगल के दो लड़कियां थीं । शिशुपाल के भी लंबे समय तक कोई संतान नहीं हुई थी । शिवमंगल की लड़कियां सभी की संतानें थीं ।
शिवमंगल पांडे दुधाई करते अैर शिशुपाल खेती । शिवमंगल सुबह फतेहपुर -कानपुर शटल से दूध लेकर कानपुर जाते और शाम आगरा-इलाहाबाद पैसेंजर से लौट आते । कुछ देर शिशुपाल के साथ खेतों में काम करवाते और दोनों भाई शाम ढलते घर लौटते । विवाह के लगभग पंद्रह वर्ष पश्चात शिशुपाल के पुत्र हुआ । घर मे इकलौता बेटा । सभी की नजरें उसी पर । एकमात्र वंशबेल । कोई कमी न रहे पालन-पोषण से लेकर शिक्षा तक और संजय ने भी उन्हें निराश नहीं किया । इसी वर्ष इंटरमीडिएट में उसने जो सफलता प्राप्त की, वह आशा से कहीं अधिक थी और गांव के कुछ लोगों को उसकी यही सफलता चुभने लगी । उन्होंने उसके जीवन में जहर घोल दिया ।
वैसे तो पांडे परिवार की संपन्नता ही गांव के कुछ लोगों की आंखों की किरकिरी बनी हुई थी । गांव में सफल और संपन्न जीवन जीने के लिए जो बातें आवश्यक हो गई हैं , पांडे लोग उनसे कोसों दूर थे । वे सीधी-सादी जिंदगी जी रहे थे । वह नहीं भांप पाए लाला अमरनाथ श्रीवास्तव के मनोभावों को । लाला कुछ वर्षों से राजनीति में सक्रिय थे । ग्राम प्रधान का चुनाव हुआ तो लाला भी प्रत्याशी थे । समर्थन के लिए पांडे के दरवाजे गए थे हाथ जोड़कर । चार लठैत साथ थे । लाला जानते थे कि जिसको पांडे का समर्थन मिलेगा, वहीं जीतेगा , क्योंकि पांडे परिवार की गांव में पुरानी प्रतिष्ठा शेष थी और आज भी लोग उनकी बात मानते थे ।
लाला अमरनाथ के पिता हिरनगांव के जीमंदार अयोध्या सिह के कारिंदा थे । जमींदार कानपुर में रहता था और गांव में एक प्रकार से लाला के पिता की ही जमींदारी चलती थी । उनकी नीतियों के कारण गांव वालों के मन में वह कभी नहीं चढ़े । जमींदारी खत्म हुई तो वह महाजन बन गए । सूद पर रुपया देकर मनमाना वसूलने लगे । लाला बड़े हुए तो पिता के व्यवसाय को आगे बढ़ाया । गरीब किसानों को लूटकर धन कमाया तो दर्ुव्यसनों के शिकार होना स्वाभाविक था । सूद का व्यवसाय एक दिन बंद हुआ तो लाला अमरनाथ ने आटा चक्की लगा ली । खुलकर खर्च करने वाले लाला सीमित आय में फड़फड़ाने लगे । उनकी नजर ग्राम प्रधानी पर जा टिकी, जिसका दोहन वह कर सकते थे । लेकिन उसके विरोध में कल्लू चमार प्रत्याशी बन गया । गांव में हरिजनों के आधे से अधिक वोट थे ।
'मंडल' के बाद हरिजनों में जो चेतना आई थी , उससे वे अपने अधिकार पहचानने लगे थे । कल्लू को पांडे परिवार का मौन समर्थन है , यह खबर लाला अमरनाथ को थी । अनेक बार मिलने पर भी लाला को जब पांडे परिवार से समर्थन का स्पष्ट आश्वासन नहीं मिला , तब एक दिन मन के असंतोष को शब्द देते हुए वह बोला था ,''पंडित जी, इस बात को याद रखूंगा ।'
चुनाव में कल्लू चमार जीता । पांडे के प्रति मन में गांठ पड़ गई थी लाला के । लेकिन पांडे परिवार लाला की मन की गांठ को भांप नहीं पाया । वे सहज थे -- निश्चिंत-निर्द्वंद्व । तभी वह घटना घटी थी । संजय एक शाम लाला की चक्की पर गेहूं पिसवाने गया । हिंगवा बौरिया भी ज्वार पिसवाने आया था । लाला उसे दो किलो आटा कम तोल रहा था । हिंगवा को दी पर्ची में लाला ने दो किलो कम लिखा था । हिंगवा अड़ गया । लाला ने उसके पिसान की बोरी सड़क पर फेंक दी और उस पर पिल पड़ा ।
संजय से बर्दाश्त नहीं हुआ । उसने लाला को पीछे से दबोच लिया और हिंगवा को उससे मुक्त किया । संजय की मजबूत पकड़ से लाला तिलमिलाकर रह गया था । संजय पर आग्नेय दृष्टि डाल लाला चीखा था ,'पांडे पुत्र तुमने मुझे पकड़कर अच्छा नहीं किया....।'
'चाचा गरीब पर हाथ चलाना मर्दानगी नहीं ?'
'कल का छोकरा मुझे बताएगा कि मर्दानगी क्या होती है ...तू मूझे बताएगा ।' लाला का चेहरा क्रोध से विकृत हो उठा था ।
लाला चीख ही रहा था कि दिन भर उसकी चक्की पर पत्ते खेलने और ठर्रा पीने वाले पांच लोग लाठी थामे आ धमके थे ।
'का हुआ लाला....काहे चीख रहे हो ?' सभी ने एक स्वर में कहा ।
'होना क्या है ...यो पांडे पुत्र ने अच्छे नंबरों से इंटर क्या पास कर लिया, अभी से अपने को कलक्टर समझने लगा है ......जानता नहीं कि लाला एक दिन में कलक्टरी पीछे के रास्ते निकाल देता है ।'
'अरे मुंह तो हिलाओ लाला ....कहो तो अबहीं......।'
'नहीं .....हम खुद ही देख लेंगे ।' लाला साथियों का बल पा अहंकार भरे स्वर में बोला ।
संजय चुप रहा और अपना पिसान हिंगवा को देकर घर चला गया था ।
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और संजय ने जो नहीं सोचा था, वह हुआ था । किसी काम से वह नरवल जा रहा था साइकिल से कि बीच रास्ते में पुलिस ने उसे रोका था । इंस्पेक्टर के साथ तीन सिपाही थे । संजय ने उस इंस्पेक्टर को कई बार लाला अमरनाथ की चक्की पर देखा था । उसे थाने ले जाकर 'लॉकअप' में डाल दिया गया था । केस बनाया गया था उसके पासे से स्मैक बदामद होने का । खबर मिलने पर सिर पीट लिया था पांडे परिवार ने । तीनों भाइयों के लिए यह हिला देने वाली खबर थी । 'क्या उनका संजय ऐसा कर सकता है ?' वे नहीं सोच पा रहे थे । उन्हें गत दिनों लाला के साथ संजय के विवाद की भनक भी न थी । संजय ने लाला की धमकी को गंभीरता से नहीं लिया था । वह भी इसलिए कि एक सप्ताह बाद वह पढ़ने के लिए शहर जाने वाला था । उसने सोचा था कि लाला का गुस्सा उसके गांव से जाते ही ठंडा हो जाएगा , लेकिन....।
कल्लू चमार के साथ तीनों पांडे थाने गए थे । पांच हजार देने के बाद संजय छूट पाया था । संजय का इतनी जल्दी छूट जाना लाला अमरनाथ के लिए चुनौती थी । उसे थानेदार को दिए अपने दो हजार रुपए व्यर्थ होते दिख रहे थे । वह दौड़ा गया था थाने और दोबारा मुट्ठी गरमा आया था थानेदार की । पुलिस आ धमकी थी गांव में तीसरे दिन ही । इस बार संजय पर केस बना था रिवाल्वर रखने और पड़ोसी गांव में रात पड़ी डकैेती में शामिल होने का । संजय तीन दिन बंद रहा थाने में । यातना भी दी गई थी उसे लगातार । इस बार दस हजार डकार गया था थानेदार । संजय को छोड़ते समय उसने शर्त लगाई थी कि वह एक महीने तक गांव छोड़कर कहीं नहीं जाएगा और सप्ताह में दो बार थाने में हाजिरी देगा ।
'हुजूर उसकी साल भर की पढ़ाई...।' तीनों पांडे गिड़गिड़ाए थे ।
'मैंने जो कहा.... अगर आपने नहीं सुना तो बताइए ...! ' खुंखार हो उठा था थानेदार ।
संजय को चुप ले आए थे पांडे ।
उसी रात लाला की चक्की पर गांव के कुछ लोग इकट्ठा हुए थे । मुर्र्गे कटे थे और बोतलें खुली थीं ।
'अच्छा सबक दिया स्साले को तुमने लाला ....बड़ा बनता था ।' ठहाकों के साथ जाम टकराए थे और जुबानें लड़खड़ाई थीं ।
और उसी रात संजय ने अपना पहला निशाना साधा था लाला अमरनाथ के भतीजे पर । रिवाल्वर खाली कर दी थी । आंखों के समक्ष पसरे अंधेरे भविष्य ने उसे विचलित कर दिया था । वह जान चुका था कि गांव में पुलिस अब उसे चैन से न बैठने देगी । और अपनी दुर्दसा के लिए जिम्मेदार लोगों के लिए वह रात के अंधेरे में घर से निकल पड़ा था ।
संजय लाला की चक्की तक पहुंचता इससे पहले ही भतीजे की खबर मुर्गा चीथते-बोतलें खाली करते लोगों तक पहुंच गई थी । हड़कंप मच गया था । लोग भाग निकले थे, लेकिन तब भी दो को निशाना बना ही लिया था उसने । उन्हें घायल छोड़ वह लाला को ढूंढ़ता रहा था । लाला पुआल के नीचे छुप गया था ।
उसके बाद लाला अमरनाथ और उसके साथियों के लिए आतंक का पर्याय बन गया था संजय । पुलिस ने पांडे परिवार को संजय की ओट में जमकर लूटा , किंतु उसे संजय हाथ नहीं आया । पता चलने पर पुलिस संजय को स्टेशन की ओर खोजने जाती , जबकि संजय गांव में लाला के किसी साथी पर निशाना साध रहा होता । पुलिस लौटती तब तक संजय गायब हो चुका होता ।
गणपत ने कहा था , 'दो महीने से लुका-छुपी का खेल चल रहा है भइया । गांव की राजनीति ने पांडे को तो तबाह ही कीन्हेसि अउरो घर बर्बाद हुई गए । अउर....।' लंबी सांस खींची थी उसने , 'बदले की आग मा संजय ने जो किया सो तो समझ मा आवत है भइया ....पर राह चलत लेगन को लूटि लेहिसि ...यो ठीक न करी...।' गणपत का स्वर विचलित था ।
'जब आदमी गलत काम करने लगता है....वह धीरे-धीरे विवके खोता चला जाता है । संजय के साथ भी ऐसा ही हुआ है ।'
गणपत मेरी ओर देखता रहा था ।
*****
रज्जू पासी के बाग से कुछ कदम आगे बढ़ा । दिमाग में विचार तीव्र गति से दौड़ रहे थे और उतनी ही तीव्र गति से नजरें खेतों में कुछ खोज रही थीं । रह-रहकर पीछे मुड़कर देख लेता था । एक पक्षी सामने से तेजी से उड़कर निकला तो अचकचा गया । पैर मेड़ से फिसल गया । गिरते बचा । संभला , पसीना पोंछा और धाीरे-धाीरे कदम धसीटने लगा । तभी देखा वह चित्तकबरा कुत्ता वापस लौटा आ रहा था ।
'अवश्य आगे कुछ खतरा है । कुत्ता उस संजय को देख वापस लौट पड़ा है । जानवर खतरा भांप लेते हैं ।'
कुछ देर खड़े सोचता रहा । आगे बढ़ना कठिन लगा । तभी पीछे शीशम के नीचे झाड़ियों में खुरखुराहट हुई । क्षण भर सोचा , फिर गांव की ओर मुड़कर कुछ देर सधे पैेरों चला । रज्जू पासी का बाग पार हेते ही दौड़ पड़ा । घर पहुंचकर ही राहत मिली ।
दोपहर बाद गणपत ने आकर बताया , 'भइया दोपहर पुलिस के साथ मुठभेड़ मा संजय मारा गया । स्टेशन के पास खेतन मा हुई मुठभेड़....भइया बड़ा बुरा हुआ पांडेन के साथ ।' गणपत दुखी था ।
गणपत की बात का उत्तर न देकर मैं सोचने लगा था कि अब खेतों की ओर जाना निरापद रहेगा ।
*****

Friday, January 15, 2010

कहानी-३०



वह चुप हैं

रूपसिंह चन्देल

वह चुप हैं ...... बिल्कुल ही चुप .
वैसे कम बोलना उनकी आदत है . यह आदत उन्होंने विकसित की है . कभी वह अधिक बोलते थे जिस पर उन्होंने सप्रयास नियंत्रण पा लिया . वह जानते थे कि कम बोलने के लाख लाभ होते हैं . साथी मुंह ताकते रहते हैं कि वह कुछ बोलें लेकिन वह चुप रहते हैं . दूसरों को सुनते हैं और उनके कहे को अपने अंदर गुनते हैं . अवसरानुकूल कुछ शब्द उच्चरित कर देते हैं...... एक-एक शब्द पर बल देते हुए . वह अपने वाक्यों की असंबध्दता की चिन्ता नहीं करते . चिन्ता करते हैं अधिक न बोलने की . अधिक बोलने को अब वह स्वास्थ्य खराब होने के कारणों में से एक मानते हैं . स्वास्थ्य को वह व्यापक अर्थ में लेते हैं , जो शारीरिक ही नहीं सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक........ व्यापक संदर्भों से जुड़ता है .
वह कम अवश्य बोलते हैं लेकिन बिल्कुल चुप उन्हे पहली बार देखा गया है . मिलने आने वालों को उनकी पत्नी शालिनी दरवाजे से ही टरका देती हैं यह कहकर कि शुशांत जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है .
''शालिनी जी , दो दिन पहले शुशांत जी बिल्कुल स्वस्थ थे.....'' मिलने आए एक युवक के कहने पर वह बोली , '' कल से स्वास्थ्य खराब है . छींक रहे हैं और गला भी खराब है .''
''शालिनी जी ,'' युवक बोला , ''वह स्वयं न बोलें , बस मुझे सुन लें . उनके लिए एक आवश्यक सूचना है .''
शालिनी ने उस अपरिचित युवक को घूरकर देखा ,'' आप मुझे बता दें . मैं उन्हें बता दूंगी .''
युवक ने शालिनी की ओर अखबार बढ़ाते हुए कहा ,'' परसों शाम 'जनाधार लेखक संघ' की ओर से प्रख्यात साहित्यकार कामेश्वर जी की मृत्यु पर शोक सभा आयोजित थी . शुशांत जी भी बोले थे . बोलते हुए उन्होंने कहा था कि कामेश्वर जैसे व्यक्ति इसलिए हमारी श्रध्दांजलि के हकदार हैं क्योंकि उन्होंने थोड़ा-बहुत कुछ लिखा है . वर्ना उनका जीवन इतना अराजक....चरित्र इतना कमजोर ......''
''आप कहना क्या चाहते हैं ?'' शालिनी ने युवक को नजरें तरेरते हुए टोका .
अविचलित युवक ने 'आज भारत' अखबार बढ़ाते हुए कहा , '' इसमें शुशांत जी के कथन की भर्त्सना की गई है . मुझे 'जनाधार लेखक संघ' के सचिव व्याकुल कुमार जी ने यह कहकर भेजा है कि शुशांत जी 'आजाद भारत' को यह कहते हुए अपना खण्डन भेज दें कि उन्होंने वैसा नहीं कहा था . रिपोर्टर ने उनकी बात को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है .
''जी शुक्रिया . मैं उन्हें बता दूंगी . '' आजाद भारत की प्रति युवक से लेती हुई शालिनी बोली और युवक को दरवाजे पर खड़ा छोड़ दरवाजा बंद कर लिया .
******
वह चुप हैं और चुप होने का कारण पूछने पर भी उन्होंने शालनी को नहीं बताया .
एक और समय वह चुप रहने लगे थे , लेकिन बिल्कुल चुप नहीं थे । तब उनके स्कूटर ने उनके अंदर उथल-पुथल मचा रखा था . चार वर्षों से वह उनके गैराज में खड़ा था . बेटे के लिए उसे खरीदा गया था . बेटा उससे कॉलेज जाता ....दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग , जहां से वह इंजीनियरिंग कर रहा था . इंजीनियरिंग कर वह चार साल पहले एम.एस. करने अमेरिका चला गया और एम.एस. कर वहीं नौकरी करने लगा . बेटे के जाने के बाद स्कूटर को गैराज में बंद करने के बाद न उन्हें गैराज खोलने की आवश्यकता अनुभव हुई और न ही स्कूटर का खयाल आया . दरअसल बेटे के लिए उन्होंने नहीं शालिनी ने उसे खरीद दिया था . उनके यहां स्कूटर है यह अनुभूति उन्हें तब होती जब कभी -कभार उसे वह गेट के बाहर खड़ा देखते . वैसे होता यह था कि जब वह सुबह नौ बजे सोकर उठते बेटा कॉलेज के लिए जा चुका होता था . शालिनी विदेश मंत्राालय में सहायक निदेशक राजभाषा थी और वह भी कार्यालय जा चुकी होती थी .

शुशांत , जिनका पूरा नाम शुशांत राय था , उठते , अंगड़ाई लेते , खिड़की से झांककर सड़क की आमद-रफ्त का जायजा लेते हुए दाढ़ी पर हाथ फेरते , जिसकी वह बहुत साज-संवार करते थे , फिर बिस्तर छोड़ किचन में जाते , जहां शालिनी थर्मस में उनके लिए चाय बनाकर रख जाती थी .
चाय पीते हुए वह दिन के अपने कार्यक्रम पर विचार करते . अखबार पर सरसरी दृष्टि डालते और विशेषरूप से दुर्घटनाएं , हत्या , बलात्कार और लूट-पाट की खबरें पढ़ते . ये खबरें उन्हें चिन्ता में डाल देतीं . वह अपने को असुरक्षित अनुभव करते ....और घर , शालिनी और बेटे अखिल को लेकर चिन्तित हो उठते .
बलात्कार शब्द पर उनकी नजरें अधिक देर तक टिकतीं . उस समाचार को वह गौर से पढ़ते और मन में विचलन अनुभव करते रहते . विचलन अनुभव करते हुए उन्हें बरबस सुहासिनी की याद हो आती . याद तब अधिक आती जब उससे मिले उन्हें दो-तीन सप्ताह बीत चुके होते .
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सुहासिनी उनकी छात्रा थी .... उनके निर्देशन में पी-एच.डी कर रही थी . उसके रजिस्ट्रेशन के बाद उन्होंने उसकी इस प्रकार उपेक्षा की कि एक दिन वह रो पड़ी थी . वह काम करके लाती . वह देखते ..... देखते नहीं बल्कि गंभीरतापूर्वक देखने का अभिनय करते और कुछ देर बाद रजिस्टर उसकी ओर सरका देते , ''बात बनी नहीं सुहास ...... दोबारा लिखो ....'' और वह कुछ पुस्तकों के नाम बता देते , ''इन्हें पढ़ो . दिशा मिल जाएगी .''
एक -एक चैप्टर को पांच-छ: बार उन्होंने उससे लिखवाया . दो वर्षों में सुहासिनी केवल तीन चैप्टर ही लिख पायी . समय समाप्ति की ओर तेजी से बढ़ रहा था और यही वह चाहते थे . चौथे चैप्टर को जब पांचवीं बार उन्होंने रिजेक्ट किया सुहासिनी के धैर्य का बांध टूट गया और वह फफक पड़ी ,''सर , मैं पी-एच.डी. नहीं करूंगी .''
''च्च....च्च....ऐसा नहीं सोचते सुहास .''सोफे पर उसकी ओर खिसक गए थे वह और अपनी उंगलियों से सुहासिनी के आंसू पोछते हुए बोले थे ,'' तुम प्रतिभाशाली हो..... समझदार भी .... लेकिन पता नहीं क्यों नासमझी करती जा रही हो..... अब तक कब की थीसिस सबमिट हो चुकी होती . कहीं एडहॉक पढ़ा रही होती .''
सुहासिनी का रोना बंद हो गया था . वह सोचने लगी थी , ''क्या सच ही वह प्रतिभाशाली है ... लेकिन सर ने कहा....अभी कहा ....''
सुहासिनी सोच में डूब गयी ....वह कुछ और परिश्रम करेगी.....उसे प्राध्यापक बनना है .... वैसा ही करेगी जैसा शुशांत सर कहेंगे ....''
और उसको वही करना पड़ा जैसा शुशांत राय ने कहा . शालिनी दफ्तर जा चुकी थी और बेटा कॉलेज.... तब से सुहासिनी को अकेले में वह सहवासिनी कहकर पुकारने लगे थे .
सुहासिनी ने पी-एच.डी की और एक कॉलेज में उनके सहयोग से एडहॉक पढ़ाने लगी . उसे रेगुलर होना है और वह सोचती है कि उसके सर यानी शुशांत सर .. .. उसके रेगुलर होने में भी सहायक होंगे . इसीलिए वह दस-पन्द्रह दिनों में उनके घर आती है ... कॉलेज जाते समय ..... . शालिनी के कार्यालय जाने के बाद . लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ . शालिनी को ज्वर था . वह कार्यालय नहीं गई थी .
सुहासिनी घर आए और शुशांत अपने को नियंतित्रत रख लें , संभव नहीं था . चार वर्षों बाद उन्हें गेैराज की याद आयी थी . बमुश्किल से चाबी खोज पाए थे वह . ज्वर के कारण शालिनी अर्ध्दचेतनावस्था में थी .
शुशांत कठिनाई से गैराज का ताला खोल पाए , क्योंकि उसमें जंग लग चुकी थी . गैराज में जमी धूल की पर्त और दीवारों में लगे जालों ने एक बार तो उन्हें हतोत्साहित किया था , लेकिन उसका विकल्प उन्होंने खोज लिया था . 'चटाइयाें का आविष्कार शायद ऐसे अवसरों के लिए ही हुआ था ' उन्होंने उस समय सोचा था . लेकिन स्कूटर बाधक बन गया था . छोटे-से गैराज का अधिकांश स्थान उसने घेर रखा था . उतावलेपन के उस क्षण उस बाधा से मुक्ति आवश्यक थी . मुक्ति उसे हटा देने से ही संभव थी . लेकिन चार वर्षों से एक ही जगह अड़े स्कूटर को हटाना उनके लिए किसी पहाड़ को हटाने जैसा था . भले ही उन्होंने दुनिया को चलाया था ,लेकिन स्कूटर चलाना तो दूर आने के बाद उसे हाथ भी नहीं लगाया था , उसे हटाने से शालिनी के उठ आने का खतरा भी था . उसे खिसकाकर उन्होंने धूल और जालों की परवाह न कर धूलभरी फर्श पर किसी तरह आधी-अधूरी चटाई बिछा ली थी . ऐसे अवसरों में असुविधाओं में सुविधा खोज लेना उनकी फितरत थी .
लेकिन स्कूटर उनके दिमाग में अटक गया था . वह सड़क पर दौड़ने के बजाय उनके दिमाग में दौड़ने लगा था . उसे घर से बाहर कर देने का निर्णय उन्होंने कर लिया था . उसे बेच दें या किसी को दे दें इस द्वन्द्व में वह कई दिनों तक फंसे रहे थे . बेचने से अधिक किसी को दे देना उन्हें अनेक दृष्टिकोण से उपयुक्त लगा था . लेकिन कुछ मुफ्त देना उनके सिध्दाांत के विरुध्द था . मुफ्त पाने वाले की आदतें खराब हो जाती हैं . वह श्रम से बचने लगता है .... इससे न उसका विकास होता है और न देश का . 'मुफ्त' देने-पाने की नीति उनके प्रगतिशील विचारों के विरुध्द थी . अपने प्रगतिशील विचारों के प्रतिपादन के लिए उन्होंने अपने कुछ सिध्दांत तय किए थे और उन सिध्दान्तों का वह कठोरता से पालन करते थे .
सोच-विचारकर उन्होंने 'जनाधार लेखक संघ' से जुड़े अपने एक छात्र को स्कूटर देने का निर्णय किया . संध की परिकल्पना में उनकी भी भूमिका रही थी , जिससे उनके कुछ छात्र भी उससे जुड़े हुए थे . समय-समय पर वे संघ की ओर से धरना-प्रदर्शन कर लेते - - -जंतर-मंतर पर सरकार के विरुध्द नारे लगा लेते . संघ से जुड़े लोग प्रसन्न हो लेते कि वह सरकार की दुर्नीतियों के विरुध्द आवाज बुलंद कर रहे थे जबकि संघ के पदाधिकारी इससे सरकारी तंत्र पर दबाव बनाकर अपने हित साध लेने से प्रसन्न होते थे .
एक दिन राजीव प्रसाद नामके उस युवक को उन्होंने घर बुलाया . उसकी पढ़ाई , समस्याओं आदि की चर्चा कर कहा , ''राजीव तुम्हे एक प्रोजेक्ट पर काम करना है .''
'' कैसा प्रोजेक्ट सर ?''
''स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों में स्त्री विमर्श'' विषय पर कुछ काम करना है .''
'' सर .....'' राजीव के स्वर में कंपन था .
''मैं तुम्हारी सहायता करूंगा . यही कोई दो-ढाई-सौ पृष्ठों की पुस्तक ........ पर्याप्त पारिश्रमिक मिलेगा . पांच दशकों के महत्वपूर्ण उपन्यासों की सूची मेैं लिखवा दूंगा . प्रत्येक दशक के आधार पर पांच अध्याय और छठवां अध्याय उपसंहार .''
''सर- - - मैं- - - .''
''अरे घबड़ाते क्यों हो ? मैं हूं न ! '' दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए शुशंांत राय बोले ,'' इसके लिए कुछ परिश्रम करना होगा ... कुछ पुस्तकालयों की खाक भी छाननी होगी ..... उसके लिए तुम मेरा यह स्कूटर ले जाओ . केवल कार्य करने तक के लिए ही नहीं..... इसे मैं तुम्हें दे रहा हूं .''
राजीव उनके चेहेरे की ओर देखने लगा तो वह बोले ,'' ऐसे क्यों देख रहे हो ! भई मुफ्त में नहीं दे रहा हूं...... काम करवा रहा हूं . तुम प्रतिभाशाली हो और प्रतिभाशाली लोग मुझे प्रिय हैं . मैं उनके लिए कुछ भी करने को तैयार रहता हूं .....''
''सर.....'' राजीव कसमसाया . वह सोच रहा था कि उसके लिए अपनी एम.फिल. का शोध प्रबंध ही भारी पड़ रहा है , ऊपर से इतना भारी-भरकम काम ..... कैसे कर पाएगा वह !''
''इसे दो महीनों में पूरा करना है ....फिर अपने एम.फिल का काम करते रहना .... अभी उसके लिए पर्याप्त समय है .'' और उन्होंने राजीव की ओर स्कूटर की चाबी उछाल दी थी . चाबी वह नहीं थाम पाया तो दाढ़ी में मुस्कराते हुए वह बोले ,'' कैच करने में कमजोर हो ?''
राजीव के घर से स्कूटर घसीटकर बाहर निकालते ही उन्होंने गेट बंद कर लिया था . उसके बाद उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि चार वर्षों में पिचक चुके टायरों और पथरा चुकी पेट्रोल की टंकी की रबड़ ने उसे कितना दुखी किया था . मेकेनिक ने उसकी जेब से पांच सौ रुपए निकलवा लिए थे , जो कि उसके पास नहीं थे .उसने एक साथी से रुपए उधार लेकर मेकेनिक को दिए थे .
लेकिन जिन्दगी में पहली बार उनके साथ ऐसा हुआ कि सोची-समझी योजनानुसार किए गए कार्य में उन्हें असफलता मिली थी . राजीव प्रसाद नामक छात्र द्वारा तैयार पुस्तक उनके नाम से प्रकाशित हानी थी . उसने एक दशक के उपन्यासों पर एक चैप्टर लिखकर उन्हें दिखा भी दिया था , लेकिन उसके बाद वह गायब हो गया था . उन्हें ज्ञात हुआ कि बंगलौर की एक बहुराष्ट्रीय बैंक में उसे नौकरी मिल गयी थी और वह पढ़ाई छोड़ गया था . उन्हें इस बात का अफसोस था कि उन्होंने पहली बार गलत घोड़े पर दांव लगाया था .
******
लेकिन अब उनके चुप होने का यह कारण नहीं था .
हुआ यह कि दो दिन पहले लंबे समय के बाद सुहासिनी उनके यहां आयी . शालिनी दफ्तर जा चुकी थी . सुहासिनी को देख वह प्रसन्न हुए . प्रसन्न इसलिए कि उसके आने के लिए कितनी ही बार उन्होंने उसके मोबाइल पर फोन कर उससे आग्रह -अनुग्रह किया था . उसे प्रेम भरे एस.एम.एस. किए थे .
सुहासिनी का उन्होंने ऐसे स्वागत किया मानों वर्षों बाद मिले थे . लेकिन सुहासिनी में उन्हें न वह उत्साह दिखा और न औत्सुक्य . घर में प्रवेश करते ही वह हिमखण्ड की भांति सोफे पर ढह गयी थी . वह देर तक उसकी ओर ताकते रहे थे चुप फिर पूछा था , ''सुहास तुम चुप क्यों हो ? तुम्हारी चुप्पी मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही .''
सुहासिनी उन्हें घूरती रही अपनी बड़ी-बड़ी तीक्ष्ण आंखों से . उन्होंने फिर जब टोका , वह रो पड़ी . उन्हें उसके साथ का पहला दिन याद हो आया . तब भी वह ऐसे ही रोयी थी और सोफे पर उसके निकट खिसक उन्होंने उसके आंसू पोछे थे . उन्होंने उसी प्रकार उसके आंसू पोछने चाहे तो सुहासिनी ने उनका हाथ झिटक दिया , ''आपने मुझे बर्बाद कर दिया .'' वह चीखी .
''मैं ऽ ऽ ने ....?''
''हां .....आपने.....मैं गर्भवती हूं ......''
''तुम .....तुम .....'' उनकी जुबान लड़खड़ा गयी थी . किसी प्रकार अपने को संभाल वह बोले , '' इसमें परेशान होने की क्या बात.....मैं तैयार होता हूं.....किसी डाक्टर के पास......''
''नहीं.....''
''फिर .....'' वह भौंचक थे .
''आप शालिनी जी को तलाक दें और मुझसे विवाह........''
''तुम होश में तो हो न सुहासिनी....?''
''पूरे.....होश-ओ-हवाश में कह रही हूं......''
''क्या प्रमाण है कि यह मेरा ही गर्भ है ?'' वह भड़क उठे थे .
'' प्रमाण क्या हैं ....यह आपको भी पता है........'' सुहासिनी ने सधे स्वर में कहा .
वह धप से सोफे पर बैठ गए थे सिर थामकर . उनके सामने डॉ. विप्लव त्रिपाठी का चेहरा घूम गया था.... राजनीतिशास्त्र विभाग के डॉ. विप्लव त्रिपाठी.... । उनकी एक एम.फिल. की छात्रा ने ऐसा ही आरोप लगाते हुए उनके द्वारा उसे मोबाइल पर भेजे गए एस.एम.एस. के प्रमाण विश्वविद्यालय प्रशासन और इन्क्वारी कमीटी के समक्ष प्रस्तुत किए थे और आरोप सिध्द होने के बाद डॉ. त्रिपाठी को प्रोफेसर पद से विश्वविद्यालय ने बर्खास्त कर दिया था .
सुहासिनी जा चुकी थी ..... कब उन्हें पता नहीं चला था .
और तभी से वह चुप हैं .
******

Monday, January 4, 2010

कहानी-२९



वह चेहरा


रूपसिंह चन्देल

मध्य दिसम्बर का एक दिन . सुबह की खिली-खिली धूप और लॉन में पड़ी बेंचें . बेंचों पर बैठे कई चेहरे ..... धूप में नहाये चेहरे .... धूप सेकते चेहरे . खिड़की का पर्दा उन्होंने थोड़ा-सा खिसका दिया था , जिससे लॉन का दृश्य स्पष्ट दिख रहा था . उनकी नजर एक चेहरे पर टिक गयी और वह गौर से उसे देखते रहे . चेहरे पर उम्र की लकीरें स्पष्ट थीं . उन्होंने कुर्सी एक ओर खिसकाई और खिड़की पर जा खड़े हुए .... निर्निमेष उस चेहरे को देखते हुए .

'वही हैं ......लेकिन यहां क्यों ? ' मस्तिष्क में तंरगें दौड़ने लगीं . कुछ क्षण खिड़की पर खड़े रहकर वह कमरे में टहलने लगे सोचते हुए , 'मैं कैसे भूल सकता हूं उस चेहरे को . ढल गया है .... ढलना ही था . पचास से अधिक सालों की लंबी यात्रा .... पचीस साल जैसा कौन रहता है ! शरीर में स्थूलता भी है ....अपने को देखो तपिश .... तुम क्या उतने ही स्लिम-ट्रिम हो .... बढ़ती उम्र में सभी के आकार-प्रकार - चेहरे बदलते ही हैं ........'

वह एक बार पुन: खिड़की के पास जा खड़े हुए और देखने लगे. इस समय वह चेहरा किसी युवती से बातें कर रहा था . ...युवती , जो पचीस -छब्बीस के आसपास थी ....उस चेहरे से मिलता -सांवला चेहरा , नाक नोकीली , होंठ पतले और आंखें छोटीं . लंबाई भी उतनी ही .....वह भी तो उस युवती जितनी लंबी थीं , लेकिन तब उनके नितंब छूते बाल थे , जैसे कि उस युवती के हैं , लेकिन अब वह बॉब्ड थीं .

'निेश्चित ही यह वही हैं .....' वह अपनी टेबल के चारों ओर कमरे में कुछ क्षण तक टहलते रहे , ' क्या उन्हें मेरे बारे में जानकारी नहीं ? या उनकी स्मृतिपटल से मेरा नाम सदा के लिए मिट चुका है . लेकिन ऐसा संभव नहीं . हम दो बार मिले थे .... कितने ही पत्र लिखे थे एक-दूसरे को .' वह पुन: खिड़की के पास जा खड़े हुए , 'यह मेरा भ्रम नहीं....यह वही हैं .'

दरवाजे पर दस्तक हुई .

''कम इन '' वह तेजी से पलटे और कुर्सी की ओर ऐसे बढ़े मानो चोरी करते हुए पकड़े जाने का भय था .

कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ0 प्रवीण राय ने आहिस्ता से प्रवेश किया .

''यस प्रवीण .... इज एवरीथिंग फाइन !''

''जी सर . एक्सपर्ट्स डॉ0 श्रेयांष तिवारी और डॉ0 निकिता सिंह आ गए हैं . ''

''और हेड साहब....डॉ0 सच्चिदानंद पाण्डे ?''

डॉ0 सच्चिदानंद पाण्डे विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे और विश्वविद्यालय या विश्वविद्यालय के किसी भी कॉलेज में शिक्षक के किसी भी पद के साक्षात्कार में उनका होना अनिवार्य था . यह विश्वविद्यालय का नियम था .

'' उनके पी.ए. का फोन आया था सर कि वह कुछ देर पहले ही कार्यालय से निकले हैं ......उन्हें पहुंचने में कम से कम आध घण्टा का समय लगेगा .''

''हुंह......'' कुछ सोचने के बाद वह बोले , '' हेड साहब के आने तक प्रतीक्षा करना होगा .... डॉ. तिवारी और डॉ. निकिता सिंह को मेरे यहां ले आओ.......''

''सर मैंने पहले ही उन्हें आपके यहां के लिए कहा था लेकिन दोनों सीधे गेस्ट रूम में जाते हुए बोले कि वहां उन्हें कोई कष्ट नहीं.....''

''ओ. के. ...'' प्रवीण राय को सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए वह बैठ गए और बोले , ''इन दोनों की जोड़ी जहां भी जाती है अपने कंडीडेट के लिए दबाव बनाते है ....''क्षणभर चुप रहे , '' दरअसल हेड साहब सीधे व्यक्ति हैं ..... वह सब कुछ जानते हैं , लेकिन नहीं मालूम किन कारणों से प्राय: इन दोनों को एक साथ विशेषज्ञ के रूप में रिकमेण्ड कर देते हैं .''

''सर , मुझे जहां तक जानकारी है .... जब भी डॉ. तिवारी से पूछा जाता है विशेषज्ञ के रूप में किसी कॉलेज में जाने के लिए उनकी शर्त होती है कि उनके साथ दूसरा विशेषज्ञ डॉ. निकिता सिंह होंगी तभी.... विश्वविद्यालय में उनके खिलाफ जाने की शक्ति किसी में नहीं है . हिन्दी के प्रतिष्ठित आलोचक हैं ... . सत्ता में पैठ है और वी.सी. भी उन्हें मानते हैं .''

वह मुस्कराते रहे .

''सर , निकिता सिंह का कोई छात्र है ....सुना है .... उनके निर्देशन में पी-एच.डी. कर रहा है और 'नेट' भी उत्तीर्ण है .....हो सकता है .....''

उन्होंने प्रवीण की बात आधी-अधूरी सुनी . उस क्षण उनकी नजरें खिड़की से बाहर बेंच पर अखबार में झुके उस चेहरे पर टिकी हुई थीं . युवती अब वहां नहीं थी .

'युवती भी शायद अभ्यर्थी है .' उन्होंने सोचा .

''सर , फिर.....'' प्रवीण के टोकने से वह अचकचा गए .

''हुंह.....यह हो सकता है . लेकिन डॉ. तिवारी दो अपने रखते हैं तब कहीं एक वेकेंसी निकिता सिंह को देते हैं . ''

''सर ''.

''प्राय: महिला अभ्यर्थी ही उनकी कंडीडेट होती हैं . उनके निर्देशन में पी-एच.डी करने वाली सभी लड़कियां ही हैं ..... एकदम समाजवादी हैं डॉ. तिवारी . निकिता ने भी उनके निर्देशन में पी-एच.डी की थी ..... उनके आलोचक इसे उनकी कमजारी मानते हैं तो मानते रहें . '' चुप होकर प्रवीण की ओर देखने के बाद वह खिड़की से बाहर लॉन की ओर देखने लगे . वह चेहरा उन्हें वहां नजर नहीं आया . 'कहां गई ? ' क्षणांश के लिए वह विचलित हुए , लेकिन तभी सामने बैठे अपनी ओर ताकते प्रवीण पर दृष्टि डाली और बोले , ''लेकिन हम क्या करें प्रवीण ?''

'' क्या सर ?''

''आपको बताया था .... मिनिस्ट्र्री से आए फोन के बारे में .... मंत्री जी किसी निरंजन प्रसाद में इंटरेस्टेड हैं .... मंत्री जी के मुंह लगे ज्वाइण्ट सेक्रेटरी का फोन था . दोनों ही बिहार के हैं . जे.एस. ने संकेत में यह भी कहा था कि निरंजन मंत्री जी का दूर का रिश्तेदार है .......''

''सर , हमें डॉ. तिवारी से पहले ही बात कर लेनी चाहिए और अपनी समस्या डॉ. पाण्डे को भी बता देना चाहिए .''

''प्रवीण , आप जानते हैं कि डॉ. तिवारी का कंडीडेट नहीं तो किसी का नहीं ......उन पर मंत्री-संत्री का प्रभाव नहीं पड़ने वाला ....... ''

''सर , वेकेंसी भी एक ही है....एडहॉक भी नहीं ....वर्ना डॉ. तिवारी के लिए एडहॉक का ऑफर दे सकते थे .''

''प्रवीण, '' वह कुछ गंभीर हो उठे , ''आपको नहीं लगता कि यह सब कितना अनफेयर है .... मंत्री के कंडीडेट की बात हो या डॉ. तिवारी या डा. निकिता की या किसी अन्य के कंडीडेट की .... जो अभ्यर्र्थी दूर से आते हैं और कितनी ही बार उन्हें दूर शहरों में असफल साक्षात्कार के लिए जाना होता है....... उनके विषय में सोचो . अधिकांश बेकार और साधारण हैसियत के युवक .... ये तिवारी या मंत्री जैसे घड़ियाल उनकी नौकरियां निगल जाते हैं .....'' उनका चेहरा लाल हो उठा .

''सर '' प्रवीण ने चुप रहना ही उचित समझा क्योंकि वह स्वयं भी सिफारिश से नियुक्त हुआ था . लेकिन वह जानता था कि उसके सामने बैठे डॉ0 तपिश .... उसके प्राचार्य एक मेरीटोरियस व्यक्ति थे और उन्होंने सिफारिश से नहीं अपनी योग्यता से प्राध्यापकी पायी थी और विश्वविद्यालय - कॉलेज की राजनीति के बावजूद वह इस पद पर पंहुचे थे ... अपनी योग्यता के बल पर ....

'' डॉ. तिवारी और डॉ. निकिता सिंह के लिए जलपान की व्यवस्था .....'' अपनी बात अधूरी छोड़ दी उन्होंने .

''सर डॉ0 अनिरुध्द शुक्ल उनकी सेवा में हैं .''

''ओ.के. ....'' उन्होंने पुन: लॉन की ओर देखा . बेंचों पर बैठे अन्य लोग भी इधर'उधर जा चुके थे .... केवल एक वृध्द पुरुष को छोड़कर .

''डॉ0 पाण्डे के आते ही मुझे सूचित करना . उनके आते ही इंटरव्यू प्रारंभ कर देना है..... तब तक आप डॉ0 तिवारी और डॉ0 निकिता सिंह का खयाल रखें ..... '' वह पुन: कुर्सी से उठ खड़े हुए और कमरे में टहलने लगे .

******

'लोग रिसेप्शन में बैठे होंगे ....धूप में गर्मी बढ़ गयी होगी . मुझे रिसेप्शन की ओर जाना चाहिए .'

'लेकिन क्यों ?'

'शायद वह वहां मिल जांए . '

'मिल भी जाती हैं तो क्या तुम उनसे बात कर सकते हो इस समय . वह लड़की उनकी बेटी होगी .... यह तो अनुमान लग ही गया है . एक अभ्यर्थी की मां से बात करना....तपिश तुम प्राचार्य हो इस कॉलेज के.....'

'प्राचार्य क्या इंसान नहीं ! उसके परिचितों के बच्चे साक्षात्कार में नहीं बैठ सकते ? बात कर लेने से ही मैं उनकी लड़की का फेवर करने लगूंगा ? मुझे उस लड़की का नाम भी मालूम नहीं .... जबकि मंत्री जी की तोप इन्हीं बच्चों के बीच कहीं समायी होगी .... तिवारी और निकिता सिंह की गन भी होगी कहीं ...... इण्टरव्यू करने उधर से जाते हुए मैं उन्हें भलीभांति देख सकूंगा ..... जरूरी नहीं कि वह मानसी ही हों .... हों भी तो वह मुझे पहचान लेंगी यह आवश्यक नहीं है .'

'फिर तुम उधर से जाना ही क्यों चाहते हो ?' अंदर से आवाज आयी . 'पहचान लिए जाने के लिए ही न ! लेकिन क्या बात मात्र इतनी ही है ! क्या यह सच नहीं कि उनके पहचानने से तुम्हारा आहत स्वाभिमान संतुष्ट होगा . तुम उन्हें यह अहसास नहीं करवाना चाहते कि तुम इस कॉलेज के प्रिसिंपल हो ?'

'नहीं , ऐसा नहीं है .....इतनी पुरानी बात ....तीस साल पुरानी ....मैं तो भूल ही गया था ..'

'नहीं तपिश....तुम उसे एक दिन ...बल्कि एक पल के लिए भी नहीं भूले....भूल सकते भी नहीं थे .... वह पुन: खिड़की पर खड़े हो गए और बाहर देखने लगे . लॉन की एक बेंच पर वही अकेला वृध्द व्यक्ति बैठा था और बेंच से कुछ हटकर एक कुत्ता अपना पेट , टांगें और मुंह ऊपर उठाये पीठ के बल निश्चल लेटा हुआ था . तभी दरवाजे पर नॉक हुआ .

''यस !'' वह पलटे .

'सर , हेड साहब आ गए हैं ....सीधे कांफ्रेंस रूम में .....आप भी......''

''ओ.के.'' अभ्यर्थियों के नामों का फोल्डर टेबल से उठा वह डॉ0 प्रवीण के पीछे हो लिए थे .

*******

उन दिनों वह दिल्ली में विदेश मंत्रालय में अनुवादक थे . अपने को पी-एच.डी. के लिए पंजीकृत करवाने में दो बार असफल हो चुके थे . यह उन दिनों की बात है जब दूसरी बार विश्वविद्यालय ने उनके शोध विषय को खारिज किया था . वह परेशान थे और यह बात मानसी को बताना चाहते थे . बताना इसलिए चाहते थे क्योंकि पिछली मुलाकात में मानसी ने पहले विषय के खारिज होने के कारणों पर गहरी रुचि प्रदर्शित की थी और उसके हर प्रश्न के उत्तर में उन्होंने एक ही बात कही थी कि विश्वविद्यालय ने विषय के खारिज होने का कोई कारण उन्हें नहीं बताया ....केवल सूचना भेजी थी . मानसी उद्विग्न थी और तब उन्होंने अनुभव किया था उनके शोध से शायद उसकी भविष्य की आकांक्षाएं जुड़ी हुई थीं . लेकिन 'संभव है यह मेरी अपनी सोच हो.... वह ऐसा न सोचती हो .' उन्होंने सोचा था .' यदि शोध नहीं कर सके और प्राध्यापक नहीं बन पाए तो क्या . जो नौकरी वह कर रहे हैं .... उसका भविष्य प्राध्यापक जितना आकर्षक न सही लेकिन बुरा भी नहीं . डिप्टी डायरेक्टर तो वह बन ही जाएगें .'

'लेकिन मानसी को बताना आवयक है . पिछले एक वर्ष से कभी एक बहाने तो कभी दूसरे वह शादी टालती जा रही थी . वह दूरदर्शन में प्रोग्राम एक्ज्यूक्यूटिव थी और प्रारंभ में उसका बहाना था कि वह दिल्ली में थे और दिल्ली में उसका स्थानांतरण कठिन था क्योंकि वहां पहले से ही अतिरिक्त प्रोग्राम एक्ज्यूक्यूटिव्स बैठे हुए थे , जबकि उनका लखनऊ स्थानांतरण संभव नहीं था . मानसी के स्थानांतरण के विषय में वह कमलेश्वर जी से मिले थे . कमलेश्वर जी उन्हीं दिनों दूरदर्शन में अतिरिक्त महानिदेशक के पद पर नियुक्त हुए थे . मुस्कराते हुए कमलेश्वर जी ने कहा था , ''तपिश जी ..... यह बड़ा काम नहीं है . शादी करो....स्थानांतरण की जिम्मेदारी मेरी .'' कमलेश्वर जी ने उनकी आंखों में देखा , फिर मुस्कराये ....एक मीठी मुस्कान और बोले थे , ''भाई , पता कर लो ....आपकी मंगेतर की कोई दूसरी समस्या तो नहीं ....''

''ऐसा नहीं लगता सर....उसे दोनों के अलग-अलग शहरों मे रहने का भय ही सता रहा लगता है .''

''उन्हें बता दो कि मैंने आश्वस्त किया है ....''

कमलेश्वर जी की बात बताने के बाद मानसी ने खत में लिखा , ''तपिश , आपने पहले यह क्यों नहीं बताया था ... अब एक साल के लिए मैं बंध गई हूं . मैंने यहां विश्वविद्याालय में मार्निंग शिफ्ट में उर्दू सार्टीफिकेट कोर्स में प्रवेश ले लिया है . एक जमाने से मैं उर्दू सीखना चाहती रही हूं .... एक वर्ष की ही बात है .....कमलेश्वर जी तो अभी आए ही हैं .... अभी रहेगें ही ..... भले ही आई.ए.एस . लॉबी उनके खिलाफ है.......तो क्या आप एक वर्ष रुक नहीं सकते ?''

''मैं तो रुका हुआ हूं ही..... लेकिन मेरे घरवाले....उनका धैर्य चुका जा रहा है .'' उन्होंने मानसी को लिखा था .

''मैंने अपने डैडी से बात की है. वह आपके डैडी को मेरी समस्या से अवगत करवा देंगे .'' मानसी ने इस पत्र में आगे लिखा , ''समय निकालकर आकर मिल लें ......पत्रों में बातें हो नहीं पातीं .''

''कोशिश करूंगा .'' उन्होंने उसे लिख तो दिया था लेकिन लखनऊ जाने का प्रयास नहीं किया और न ही मानसी का उसके बाद कोई पत्र आया . शोध के अपने नये विषय की तैयारी और रूपरेखा प्रस्तुत करने की चिन्ता में वह इतना डूबे कि वह उसे पुन: पत्र लिख नहीं पाए . इस बार विषय प्रस्तुत करते ही निर्णायक समिति की बैठक हुई और उनका विषय पुन: खारिज कर दिया गया . विश्वविद्यालय का पत्र थामें वह कितनी ही देर तक यह सोचते रहे थे कि उन्हें मानसी को यह सूचना देना ही चाहिए . और उन्होंने उसे अंतर्देशीय पत्र लिख दिया था .

पन्द्रह दिन के अंदर ही उत्तर आया , ''आपका मिलना आवश्यक है . जितनी जल्दी संभव हो ....''

उन्होंने उसके ऑफिस के पते पर पत्र लिख दिया कि वह अमुक तिथि को अमुक ट्रेन से लखनऊ पहुंचेंगे....सुबह दस बजे उसके कार्यालय में मिलेंगे .''

''कार्यालय नहीं.....इंडियन कॉफी हाउस ....ग्यारह बजे .... मेरे कार्यालय के निकट ही है ....सुबह ग्यारह बजे ....मिस नहीं करेंगे .'' मानसी ने तुरंत लिख भेजा था .

******

निश्चित तिथि को ठीक ग्यारह बजे सुबह वह कॉफी हाउस में थे . पांच मिनट ही हुए थे उन्हें वहां पहुंचे कि उन्होंने एक युवक के साथ सड़क पार करते हुए मानसी को देखा . टेबल पर बैठने के लिए उन्होंने कुर्सी को हाथ लगाया ही था कि रुक गए और बाहर निकल आए . उनकी दृष्टि युवक पर टिकी हुई थी , मानसी जिससे हंसकर कुछ कह रही थी . युवक लंबा....पांच फीट आठ इंच के लगभग.....स्लिम ...गोरा ....एक वाक्य में ... सुन्दर था .

'ऑफिस का कोई कलीग होगा .' उन्होंने सोचा , 'कहीं जा रहा होगा .'

लेकिन युवक कहीं नहीं गया . मानसी के साथ रहा . मानसी ने दूर से ही उन्हें देख लिया था और उनकी ओर हाथ का इशारा कर कुछ कहा . उन्होंने मानसी के संकेत के बाद युवक को हंसते देखा था .

''सॉरी....मैं दस मिनट लेट हूं .'' उनके निकट पहुच मानसी बोली .

वह चुप रहे . उनकी नजरें युवक पर गड़ी थीं .

''ओह ! '' मानसी ने उनके भाव पढ़ लिए , ''यह हैं मनीष तिवारी ....आकाशवाणी में हैं ....प्रोग्रैम....''

''एक्ज्यूक्यूटिव....'' मानसी से शेष शब्द मनीष तिवारी ने झटक लिया और उनकी ओर हाथ बढ़ा बोला , ''आपसे मिलकर प्रसन्नता हुई .''

''थेैंक्स .'' मंद स्वर में वह बोले थे .

''मैं चलता हूं मानसी.....आफ्टरनून आकर केस डिस्कस कर लूंगा....नो हरी.....''

''अरे यार.....ऐसी भी क्या जल्दी है ! तपिश जी क्या सोचेगें ? एक कप कॉफी पीकर चले जाना '' मनीष की ओर देख मुस्कराती हुई मानसी बोली , ''अरे हम लोग यहीं खड़े रहेगें या बैठेगें भी .....'

''हां.....हां....क्यों नहीं ......'' और वह अंदर की ओर मुड़ गए तो मानसी और मनीष भी उनके पीछे हो लिए थे . जिस मेज पर वह बैठने जा रहे थे .... वह अभी भी खाली थी .

बैठने के बाद उनके बीच देर तक चुप्पी पसरी रही . चुप्पी को ताड़ती हुई मानसी ने पूछा ,

''कॉफी लेंगें ?''

''कॉफी हाउस में बैठे हैं तो वह तो लेना ही है........इस मुलाकात को यादगार भी तो बनाना है .'' उन्हें अपनी बात अटपटी लगी , लेकिन बात जुबान से रपट चुकी थी . संभालने का प्रयत्न करते हुए उन्होंने तत्काल जोड़ा , '' मनीष जी का साथ होने से इसे यादगार मुलाकात ही कहूंगा ....''

मनीष के चेहरे पर मुस्कान तिर गयी .

''हां , यह है . मनीष बहुत व्यस्त रहते हैं ....कभी पकड़ में नहीं आते . आकाशवाणी की नौकरी......नाटक लिखते हैं ....इनकी कई स्क्रिप्ट पर दूरदर्शन और आकाशवाणी ने नाटक तैयार किए हैं .''

''हुंह .'' उन्होंने मनीष की ओर पुन: हाथ बढ़ाया .''मेरा सौभाग्य . आप जैेसे कलाकार से मुलाकात का श्रेय मानसी जी को .... इनका भी आभार .''

''मानसी कुछ अधिक ही प्रशंसा कर रही हैं सर ! बस यूं ही कुछ उल्टा-सीधा लिख लेता हूें .''

''तपिश जी ......ये संकोच करते हैं .....''

''हर बड़ा कलाकार अपने बारे में बताने या बताए जाने पर संकोच प्रकट करता है . बड़प्पन की यही निशानी है . '' वह अब पूरी तरह खुल चुके थे .

''यू आर राइट तपिश जी .... मनीष जीनियस हैं , लेकिन मेैं जब कहती हूं तो यह चिड़चिड़ा जाते हैं .''

उन्होंने देखा अपने को 'जीनियस' कहे जाने पर मनीष का चेहरा खिल उठा था . वह चुप रहे . कुछ देर बाद मनीष बोला , ''मानसी की ज़र्रानवाजी सर .....लेकिन आप मुझे लेकर कोई गलतफहमी नहीं पालेंगे ..... मुझ जैसे कलाकार-लेखक गली-कूंचों में एक खोजेंगे -- अनेक मिल जाएगें ....''

''आपने देखा इनकी विनम्रता .'' तपिश की ओर देखते हुई मानसी बोली .

वह तब भी चुप रहे .

''यार मनीष , कुछ और तारीफ तभी करूंगी .... जब कुछ पी लूंगी .'' मानसी बोली .

''बेयरे को आवाज दो .....दो चक्कर काट गया और हम लोग बातों में लगे रहे .''

''जाकर आर्डर कर आता हूं .'' मनीष जाने के लिए उठा , दो कदम बेयरे की ओर बढ़ा , फिर रुककर उनसे पूछा ,'' तपिश जी कुछ और लेगें .''

''नो थैंक्स .''

******

कॉफी पीकर मनीष तिवारी चला गया .

''तपिश जी , आपको कहीं कोई दूसरा काम है ?'' मानसी ने पूछा .

वह अचकचा गए . सोचने लगे ,''इसने मुझे बुलाया और अब पूछ रही है कि.....''

कोई उत्तर दिए बिना वह मानसी की ओर देखने लगे थे .

''सॉरी ,मैंने यूं ही पूछा . कभी-कभी ऐसा होता है ... लेकिन ....'' आगे कुछ न बोल वह कभी बेयरे की ओर देखती ओैर कभी गेट की ओर .

तपिश को लगा कि शायद उसने किसी और को भी बुलाया हुआ है . कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने पूछ लिया ,''किसी को आना है ?''

''नहीं....कौन आएगा ? '' मानसी फिर चुप थी और लगातार गेट कर ओर देखती जा रही थी . तपिश भी उधर ही देखने लगे . तभी बेयरा आ गया .

मानसी का ध्यान गेट की ओर होने का लाभ उठा तपिश ने कॉफी के पैसे बेयरे को दे दिए .

''आपने क्यों दिए ?''

''मुझे नहीं देना चाहिए था ?''

''मेरा यह मतलब नहीं ....''

''अगर आपको किसी की प्रतीक्षा नहीं तो हम उठें ....डेढ़ घण्टा हो चुका है .... ''

''हां.....लेकिन यहां तो लोग सुबह आकर शाम तक बैठे रहते हैं ....''

''हां.....आं....लेकिन हमें अभी बूढ़ा होने में बहुत वक्त है .''

मानसी मुस्करा दी . उन्होंने ध्यान दिया , उसकी मुस्कराहट में उत्साह -प्रफुल्लता नहीं थी .

उठ खड़े होते हुए उन्होंने पूछा , ''आपके पास अभी ओैर कितना वक्त है ....?''

''लंच तक आपके साथ रह सकती हूं ... ''

बाहर फुटपाथ पर पहुंच वह बोले ,''फिर हम क्यों न हजरतगंज में चहल-कदमी करते हुए बातें करें ....''

''जी...श्योर ...''

*****

दो बजे तक मानसी उनके साथ हजरतगंज में एक छोर से दूसरे छोर तक उलट-
फेर कर टहलती रही . उन्हें आश्चर्य था कि जिस उद्देश्य से उसने उन्हें तुरंत आ जाने का आग्रह किया था उस पर चर्चा करने से वह बचती रही . उन्होंने जब अपने शोध विषय के निरस्त होने की चर्चा छेड़ी... उसने केवल ,''ऐसा होता है ... वह कोई मुद्दा नहीं .''

''फिर मुद्दा क्या है ?''

''मुद्दा ....... कुछ है ही नहीं .''

''फिर....?''

''आपको लिखा था कि मैंने उर्दू कोर्स ज्वायन किया है .... उसे पूरा कर लेना चाहती हूं .''

''यह कोई आई.ए.एस. , पी.सी.एस. जैसी तैयारी तो नहीं . '' वह बोले . उनका स्वर कुछ ऊंचा था .

''आप इतनी उतावली क्यों दिखा रहे हैं ?'' मानसी के स्वर में चिड़चिड़ाहट थी .

वह हत्प्रभ थे . कारण वह पहले ही बता चुके थे . चुप रहे .

''मैं समझती हूं ... रुकना हमारे हित में है . आपको शोध के लिए पंजीकृत होने में सुविधा रहेगी .... तब तक कुछ काम भी कर डालेगें ... मैं भी उर्दू में कुछ कर लेना चाहती हूं....''

''हुह....'' सामने से आ रहे व्यक्ति से उन्होंने अपने को बचाया .

''क्या आप नहीं चाहते कि आप जैसे प्रतिभाशाली युवक का स्थान किसी डिग्री कॉलेज या विश्वविद्यालय में है .... बुरा नहीं मानेगें .... आपने बताया था कि अच्छे अंको से आपने प्रथम श्रेणी पायी थी एम.ए. में .''

''जी .''

''फिर अनुवाद में प्रतिभा का क्षरण क्यों ...?''

वह निरुत्तर रहे .

''अरे दो बज रहे हैं ? ढाई से मेरे एक कार्य का लाइव टेलीकॉस्ट है ....मैं चलूं ?''

''श्योर .'' उदासीन स्वर में वह बोले थे .

मानसी ने बॉय किया और तेजी से दूरदर्शन केन्द्र की ओर लपक गयी . वह देर तक खड़े उसे जाता देखते रहे थे . मानसी तो चली गई थी लेकिन उनके अंदर एक उद्वेलन छोड़ गयी थी ....

उन्होंने रिक्शा पकड़ा और होटल लौट गए थे .

*****

उनके पिता पारंपरिक सोच के थे और अपनी बढ़ती उम्र से चिन्तित . एक दिन वह दिल्ली आ पहुंचे और उन्हें धमकाने के अंदाज में बोले , ''तपिश , मैं उस रिश्ते को तोड़ने जा रहा हूं.... हद ही हो गयी . तय हुए डेढ़ साल से ऊपर हो चुका है .... उनके बहानों का अंत ही नहीं .... मुझे तो दाल में कुछ काला नजर आ रहा है .''

''क्या ?'' धीमे स्वर में उन्होंने पूछा .

''यही कि वे लोग किसी आई.ए.एस. -पी.सी.एस. के चक्कर में हैं . वहां से उन्हें स्पष्ट उत्तर नहीं मिल रहा होगा .... और तुम्हें उन्होंने स्थानापन्न के रूप में रखा हुआ है .''

''मैं भी जल्दी में नहीं हूँ . '' उन्होंने उत्तर दिया था .

''तुम्हें जल्दी क्यो होगी ? तुम्हारी छोटी बहन छब्बीस की हो रही है ... तुम्हें यह पता नहीं होगा....? लेकिन मुझे उसकी चिन्ता भी करनी है .''

''डैडी ...आप विपाशा की शादी की चिन्ता करें .... मैं फिलहाल शोध की चिन्ता करूंगा....''

'' शोध-बोध...शादी के बाद भी होता रहेगा .''

'' रजिस्ट्रेशन होने तक मेरे मामले को स्थगिेत कर देंगे तो मेरे हित में होगा .'' उनके स्वर की निरीहता ने शायद पिता को सोचने के लिए विवश किया था . हथियार डालते हुए वह मरे-से स्वर में बोले थे ,''तपिश , शादी की भी एक उम्र होती है ... उसके बाद फिर समझौते ही होते हैं .''

वह चुप रहे थे .

पिता गए तो वह शोध के लिए नये विषय के पंजीकरण की तैयारी में लग गए थे .

*****

तीसरी बार शोध निर्णायक मंडल की बैठक छ: माह बाद हुई . उस बार उनका विषय पंजीकरण के लिए स्वीकृत हो गया था . जिस दिन यह बताने के लिए दफ्तर में उनके गाइड का फोन आया उसी दिन शाम घर पहुंचने पर डाक से आया उन्हें एक निमंत्रण पत्र मिला , जिसपर नजर पड़ते ही वह चौंके थे . उस पर 'मानसी और मनीष के नाम लिखे थे . कार्ड खोलने का मन न होते हुए भी उन्होंने उसे खोला .... पढ़ा और एक ओर खिसका दिया . उसके दसवें दिन उन दोनों का विवाह होना था . देर तक वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा सोफे पर अधलेटे से बैठे रहे थे . पिछली मुलाकात के दृश्य तेजी से उनकी आंखों के सामने घूमते रहे थे .

'मानसी ने उन्हें केवल मनीष से मिलवाने के लिए बुलाया था .... वह शायद इस विषय में बताना चाहती थी ...फिर कहा कयों नहीं... ' वह सोच रहे थे - 'कहना आवश्यक था ? यदि तुममें समझने की क्षमता ही नहीं तब कहकर भी क्या समझ लेते ? उसके परिवार वालों को भी इस बारे में जानकारी रही होगी . वे मनीष और उसके प्रेम संबधों के कारण उलझन में रहे होंगे . लेकिन मानसी ने उचित ही किया . यदि अपने परिवार के दबाव में वह उनसे विवाह कर भी लेती तो भी क्या वह मनीष को भूल जाती ! तब क्या स्थिति बनती.... नहीं उसने उचित कदम उठाया ....'' मुझे उसे बधाई देनी चाहिए .

और अगले दिन उन्होंने मानसी को बधाई का टेलीग्राम भेज दिया था .

******

उसके बाद जीवन कुछ यूं बदला कि उन्हें पता ही नहीं चला . वह निरंतर सफलताओं के सोपान चढ़ते रहे ... पी-एच.डी. सम्पन्न होने से पहले ही उस कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए....और आज वह उस कॉलेज में ही प्राचार्य थे . उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा .... क्क्त भी नहीं था देखने का ...वक्त शादी करने के लिए भी नहीं निकाल सके....काम-शोध...और उसी दौरान दो वर्षों के लिए वह हिमाचल विश्वविद्यालय के वी.सी. भी रहे .... केवल दो वर्षों के लिए... दो वर्षों बाद पुन: अपने पद पर वापस लौटे . उन्हें कभी किसी की कमी खटकी भी नहीं . अपने अधीनस्थों और विद्यार्थियों को अपना परिवार समझा और सभी के लिए दरवाजे खुले रखे . आज वह दिल्ली के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्राचार्य के रूप में जाने जाते हैं .

लेकिन मानसी उन्हें कभी याद नहीं आयी ऐसा नहीं था . काम के बीच कभी अचानक खाली होते तो सोच लेते....मानसी उनके जीवन में आयी पहली और अंतिम लड़की थी .... भले ही उसके पिता ने उसे खोजा था और बाकायदा उनकी 'रिंग' सेरेमनी हुई थी . उसके बाद वह उससे दो बार ही मिले थे.... कुछ पत्राचार हुआ था .... तब वह उसके विषय में ही सोचते रहते थे .... सपने बुनते रहते थे . अकेले रहते थे ... दफ्तर के बाद मानसी उनके साथ हाती थी ... लेकिन जब सब समाप्त हुआ उन्होंने अपने को इतना समेटा कि मानसी भूले-भटके कभी उनके मानस पटल पर विचरण कर जाती और तब वह - ''आपने उचित निर्णय लिया था मानसी '' अपने को उसकी स्मृति से मुक्त कर लेते , 'लेकिन उसके जाते-जाते यह भी कहते , ''यदि आपने वह निर्णय न किया हेता मानसी तो मैं आज जो कुछ हूं वह नहीं होता .''

******

साक्षात्कार प्रारंभ होने से पूर्व उन्होंने अभ्यर्थियों के नामों पर दृष्टि डाली और अभीप्सा तिवारी , लखनऊ पर अटक गए . सब कुछ उलटता-पलटता नजर आया . 'हर अभ्यर्थी को जानकारी होती है कि जिस कॉलेज में वह साक्षात्कार के लिए जा रहा है वहां का प्राचार्य , विभागाध्यक्ष और विश्वविद्यालय का विभागाध्यक्ष कौन है . अभीप्सा यदि मानसी की बेटी है तब मानसी को भी ज्ञात होगा ,फिर उसने मुझे एप्रोच क्यों नहीं किया ? करती तो क्या तुम उसके लिए कुछ कर देते ! डॉ0 तिवारी और डॉ0 निकिता और मंत्रालय..... क्या वह इतना आसान होता .' उन्होंने सोचा 'आवश्यक नहीं मानसी को पता ही हो .... मेरे नाम के कितने ही लोग हो सकते हैं . फिर उसने तो यही सोचा होगा कि मैं सरकारी बाबू था .... आज भी कुछ पदोन्नतियों के बाद वहीं होऊंगा .... ' क्षणांश के लिए रुककर पुन: सोचा , ''यह भी संभव हेै वह मानसी हो ही न.... '

वह कुछ और सोचते कि अभ्यर्थियों को बुलाये जाने के लिए प्रवीण ने पूछा और उनसे पहले डॉ0 पाण्डे ने सिर हिलाकर अनुमति दे दी .

अभीप्सा तिवारी को जब बुलाया गया तब वह कुछ विचलित हुए . एक बार उनके मन में आया कि वह उससे कुछ न पूछकर केवल उसके पेरेण्ट्स के विषय में पूछें , लेकिन तत्काल अंदर से आवाज आयी ,'' डॉ0 तपिश ....क्या मूर्खतापूर्ण बात सोचने लगे .... इतना भावुक होकर अपने पद की गरिमा क्यों घटाने पर तुले हुए हो ?''

अभीप्सा ने चयन बोर्ड के सभी सदस्यों के प्रश्नों के उत्तर दिए और सही -बेहिचक . लखनऊ विश्वविद्यालय से उसने प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया था , नेट उत्तीर्ण थी और पी-एच.डी. कर रही थी . अभीप्सा एक हलचल थी उनके अंदर . उसके अतिरिक्त दो अभ्यर्थी और भी थे जिन्होंने सभी के प्रश्नों के सही उत्तर दिए थे . लेकिन उन दोनों के बजाय घूमफिर कर उनके दिमाग में अभीप्सा की नियुक्ति घूम रही थी . 'अभीप्सा ही क्यों ?' मन के एक कोने से प्रश्न उठा ,'दूसरे अभ्यर्थी इसी विश्वविद्यालय के छात्र हैं ..... उनमें कोई कमी भी नहीं है .... फिर तपिश तुम अभीप्सा के बारे में ही क्यों सोच रहे हो ! मानसी से जुड़ा अतीत तुम्हें परेशान कर रहा है ?'

उन्होंने विश्वविद्यालय के विभागाध्यसक्ष और डॉ0 तिवारी की ओर दृष्टि डाली . डॉ0 तिवारी साक्षकार समाप्त हो जाने के बाद डॉ0 निकिता सिंह से फुसफुसाकर कुछ कह रहे थे और वह स्वीकृति में सिर हिला रही थी . कांफ्रेंसरूम में सन्नाटा देर तक चहलकदमी करता रहा . बीच-बीच में कुछ कागजों की सरसराहट की आवाज हो जाती . तभी उन्होंने धण्टी बजायी . वह सन्नाटे को तोड़ना चाहते थे . गेट पर तैनात चपरासी दौड़ता हुआ आया .

''चाय ''

''जी सर .'' चपरासी के मुड़ते ही वह बोले , ''किसके नाम पर विचार किया डॉ0 तिवारी ? '' उन्होंने विभागाध्यक्ष और डॉ0 निकिता सिंह की ओर देखा .

'' रंजना श्रीवास्तव .....''

''डा0 साहब रंजना आधे प्रश्नों के उत्तर ही नहीं दे पायी थी.....'' डॉ0 प्रवीण राय विनम्रतापूर्वक बोले .

उन्होंने पुन: विश्वविद्यालय विभागाध्यक्ष की ओर देखा . वह चुप थे .

''सर.... डॉ0 प्रवीण ठीक कह रहे हैं .'' डॉ0 शुक्ल की आवाज थी . डॉ. शुक्ल ने कुछ अधिक ही प्रश्न किए थे रंजना श्रीवास्तव से . उन्होंने उससे यह भी पूछा था कि पी-एच.डी. के उसके निर्देशक कौन थे ! प्रश्न सुनकर पहले तो रंजना अचकचाई थी , फिर डॉ0 तिवारी की ओर देखती रही थी . वे यह देखकर उलझन में थे कि वह उनकी ओर क्यों देख रही थी . जब डॉ0 शुक्ल ने अपना प्रश्न दोहराते हुए कहा , ''रंजना श्रीवास्तव , आप डाक्टर साहब की ओर क्यों देख रही हैं ? मेरे प्रश्न का उत्तर दें .''

''जी , डाक्टर साहब मेरे निर्देशक थे .'' डॉ0 तिवारी की ओर इशारा करती हुई रंजना बोली थी .

अब वह समझ पा रहे थे कि डॉ0 शुक्ल ने सोच-समझकर उस लड़की से वह प्रश्न किया था . शुक्ल को पहले से ही जानकारी रही होगी और बोर्ड के सभी सदस्यों को इस प्रकार वह इस बात से अवगत करवाना चाहते होगें . शायद उन्हें यह भी जानकारी रही होगी कि डॉ0 तिवारी रंजना श्रीवास्तव का ही चयन करना चाहेगें .

अभीप्सा के नाम का प्रस्ताव करने का विचार उन्हें त्यागना पड़ा था , क्योंकि डॉ. तिवारी डॉ. शुक्ल पर बरस पड़े थे . प्रवीण शुक्ल के पक्ष में बोल रहे थे और उनके तर्क थे कि जब रंजना श्रीवास्तव से अच्छे और उससे अधिक योग्य अभ्यर्थी हैं तब उसका चयन क्यो किया जाए !

डॉ0 तिवारी और निकिता सिंह रंजना के पक्ष में अड़ गये . लगभग दो घण्टे तक बहस चलती रही . चाय के दो दौर समाप्त हो चुके थे . निष्कर्ष के लिए शुक्ल और प्रवीण उनकी और हेड की ओर देखने लगे थे . हेड ने पूरी तरह मौन धारण किया हुआ था . शायद उन्हें पहले से ही यह ज्ञात था कि तिवारी अपने कंडीडेट के लिए सदैव की भांति अड़ेंगे . तिवारी के आड़े आना उन्हें उचित नहीं लगा . उन्होंने चुप का विकल्प चुन लिया था . तपिश बहुत देर तक अपने प्राध्यापकों और डॉ0 तिवारी के बीच छिड़ी बहस को सुनते रहे थे . उन्होंने विभागाध्यक्ष की ओर पुन: देखा . वह स्थितप्रज्ञ थे . अंतत: उन्होंने कहा , ''डॉ0 तिवारी , रंजना इस कॉलेज के लिए उपयुक्त नहीं रहेगी .... उसके बजाय आप किसी अन्य के नाम पर विचार करें तो अच्छा होगा .''

''मैं किसी और के नाम की संस्तुति नहीं करूंगा . यदि आप लोग करना भी चाहेगें तो मैं हस्ताक्षर नहीं करूंगा . ''डॉ0 तिवारी ने उबलते हुए कहा .

''मैं भी नहीं करूंगा .'' डॉ0 निकिता सिंह के स्वर में भी उत्तेजना थी .

और बोर्ड निरस्त कर दिया गया था .

*****

जब कांफ्रेंस रूम से वह बाहर निकले अंधेरा हो चुका था . चपरासी , सेक्शन अफसर , दो क्लर्कों के अतिरिक्त चौकीदार ही वहां थे . टयूबलाइट्स और पीले बल्बों की रोशनी कॉलेज परिसर में फैेली हुई थी . किसी से बिना कुछ कहे वह रिशेप्शन की ओर बढ़ गए . प्रवीण उनके पीछे लपके , लेकिन दूर से ही सूना पड़े रिशेप्शन को देख वह उल्टे पांव लौट पड़े थे अपने चैप्बर की ओर .

''सर , मैंने आपसे पहले ही कहा था .... हमें दोबारा उसी प्रक्रिया से गुजरना होगा सर ..... छ: महीने लग जाएगें ... लेकिन.....''

'हुंह....'' विचारमग्न स्वर में वह बोले , ''तो सभी चले गए ?''

''कौन सर ?'' प्रवीण ने उनके पीछे चलते हुए पूछा .

''कोई नहीं .''

और वह तेजी से अपने चैम्बर की ओर बढ़ गए थे .

*****