Wednesday, November 11, 2009

कहानी के बारे में

तकनीकी कारणों से कहानी - २७ का शीर्षक कहानी के साथ प्रकाशित नहीं हो पाया . अतः पाठको से अनुरोध है कि वह उसका शीर्षक - ’हादसा’ पढ़ेंगे.

रूपसिंह चन्देल

Wednesday, November 4, 2009

कहानी - २८


दरिन्दे
रूपसिंह चन्देल

आप भले ही यह सोचें कि यह किसी विश्वविद्यालय के किसी प्रोफेसर की कहानी है , जिसकी अधीनस्थ अधिकारी ने उसके विरुध्द यौन प्रताड़ना की लिखित शिकायत वाइस चांसलर से लेकर ऐसे मामलों के लिए गठित शिखर समितियों से की ; लेकिन वे लंबे समय तक कान में तेल डाले बैठे रहे और प्राफेसर साहब अपने मित्रों और परिचितों से शिकायतकर्ता पर दबाव डलवाते रहे कि वह शिकायत वापस लेकर अपनी नौकरी की रक्षा करे , क्योंकि उसकी नौकरी एडहॉक है ।

मेरी कहानी न किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बनर्जी , चटर्जी , मुखर्जी , बाली , कमाली , सिंह , शर्मा की है और न ही वहां की किसी अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी मिस मोनिका या मीनाक्षी की । यह कहानी एक विशुध्द क्लर्क की है , जो एक सरकारी दफ्तर में काम करती थी .

मैं जानता हूं कि पूरी कहानी सुनने के बाद आप यह कहेगें कि मेरी पात्रा विमला रस्तोगी ओैर प्रोफेसर के विरुध्द शिकायत दर्ज करवाने वाली उसकी अधीनस्थ अधिकारी अर्पिता वर्मा की कहानी में साम्यता है । आप यह भी कहेंगे कि विमला रस्तोगी को सताने वाला महानिदेशक वेणु कामथ और अर्पिता वर्मा से ' तुम्हारे पास बहुत कीमती.....' और 'सट जा या हट जा ' जैसे शब्द कहने वाले प्रोफेसर प्रद्योत सेन में कोई अंतर नहीं है . लेकिन दोनों में कुछ अंतर है ....... अर्पिता वर्मा की प्रताड़ना की कहानी एक पत्रकार को ज्ञात हुई , उसने उसे समझा और अपने राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित कर दिया . विश्वविद्यालय प्रशासन में कुछ सुगबुगाहट हुई . मेजें हिलीं , कुर्सियों में फुसफुसाहट हुई . वाइस चांसलर ने शिकायत न मिलने , कहीं डाक स्तर में पड़ी होने को लेकर मलाल व्यक्त किया . लेकिन बड़े विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का दिल बड़ा होता है . उन्होंने कहलवाया कि पीड़िता को शिकायत लिख भेजने के बजाय सीधे उनसे मिलकर पीड़ा व्यक्त करनी चाहिए थी . आखिर वह भी प्रोफेसर थे ...... अभी भी हैं . एक प्रोफेसर के विरुध्द एक अदने अधिकारी की शिकायत सुनना उनके कर्तव्य क्षेत्र में आता है . दण्ड-व्यवस्था बाद की बात है . शिकायत उन तक पहुंचनी चाहिए . पन्द्रह दिन बाद भी नहीं पहुंची तो शिकायतकर्ता को दुखी नहीं होना चाहिए . अर्जी कहीं अटक गई है . सभी पर काम का बोझ है . फाइलों के बोझ तले अर्पिता वर्मा की अर्जी कहीं दबी होगी . शिक्षा के मंदिर का छोटा-बड़ा हर पुजारी बहुत व्यस्त है . लेकिन अर्जी का दम घुटने न पाएगा . अंतिम सांस तक वह निकलेगी और उन तक पहंच ही जाएगी . लेकिन वह सहृदय हैं ..... दयालु हैं और अर्पिता वर्मा को उन्होंने स्वयं आकर मिलने का संदेश दिया . वह गई और शिकायत ले ली गई . कृपालु वी.सी. ने दम साधकर प्रोफेसर प्रद्योत सेन के विरुध्द शिकायत सुनी और अर्पिता वर्मा के अपने चैम्बर से बाहर निकलने के बाद पत्रकार को दिल खोलकर कोसा जो छोटे-बड़े मसलों को एक-सा मानकर मनमाने ढंग से रिपोर्ट छाप देते हैं .

लेकिन मित्र , विमला रस्तोगी किससे शिकायत करती ! तब तक यौन प्रताड़ना के विषय में कोर्ट का सख्त आदेश न था और होता भी तब भी सरकारी दफ्तर , जहां अफसरों की तानाशाही किसी राजशाही ढंग से कार्यरत है , विमला रस्तोगी को मीडिया तक जाने का साहस न दे पाता ।

हां , आप ठीक कह रहे हैं । विश्वविद्यालयों में भी प्रोफेसरो की तानाशाही सरकरी अफसरशाही से कम नहीं है . पी-एच.डी. से लेकर नियुक्तियों तक .....सर्वत्र अराजकता व्याप्त है . आपकी सलाह महत्वपूर्ण है कि देश के सभी केन्दीय विश्वविद्यालयों की नियुक्तियां यू.पी.एस.सी. द्वारा संयुक्त विज्ञापन के आधार पर की जाएं और प्राध्यापक से लेकर प्राफेसर तक के पद स्थानातंरणीय हों . शायद तब शिक्षा के मंदिरों में होने वाले भ्रष्टाचार पर कुछ अंकुश लग सके . वर्ना प्रोफेसरों के कच्छे ढीले होने की कहानियों पर विराम संभव नहीं और न ही अपने चहेतों की नियुक्तियों पर रोक .

आपकी चिन्ता वाज़िब है । शिखर समितियां भी शिकायतों के बोझ से दबी हुई हैं . वर्षों पुरानी शिकायतों का निस्तारण वे नहीं कर पातीं . उनकी भी समस्याएं हैं . चार समितियां हैं और चारों के अधिकार क्षेत्र अलग हैं . चारों यही निर्णय नहीं कर पातीं कि कौन-सी शिकायत किसके अधिकार क्षेत्र की है ....हैं बेशक सभी यौन-प्रताड़ना से संबन्धित . किसी महिला प्राध्यापक को उसके सहयोगी ने प्रताड़ित करने का प्रयत्न किया तो किसी छात्रा को उसके प्रोफेसर ने . सभी शिकायतकर्ता अर्पिता वर्मा जैसी भाग्यशाली नहीं कि उन्हें वी.सी. बुला लेते या कोई पत्रकार तक उनकी पीड़ा पहुंच पाती . वी.सी. अति व्यस्त व्यक्ति ....देश-देशांतर के सेमीनारों आदि में उन्हें भाग लेना होता है . किस-किस की सुनें . अर्पिता वर्मा को सुन लिया यह क्या कम है !

आप ठीक कह रहे हैं । अर्पिता वर्मा जैसी लड़कियां उगंलियों में गिनने योग्य हैं . लेकिन हैं .... कम से कम शिक्षा के मंदिरों में ऐसी लड़कियां हैं . यदि न होतीं तो शिखर समितियों के पास शिकायतों का जो पुलिन्दा पड़ा है , वह न होता . आप यह भी कह सकते हैं कि यह पुलिन्दा पड़ा ही क्यों है ? भई , यह प्रश्न न्यायालय के संदर्भ में भी उठ सकता है . वहां न्याय पाने के लिए जिन्दगी ही गुजर जाती है . पहले ही कहा , इसका सीधा कारण काम के बोझ से है . शिखर समितियों के पास कितना काम है ..... इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते . लेकिन आप इस बात से दुखी क्यों हैं कि अपराधी उन्मुक्त घूमते हैं , दूसरों को प्रताड़ित करने की जुगत खेजते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि यदि कभी कुछ कार्यवाई हुई भी उनके विरुध्द तो उन्हें मात्र चेतावनी दी जाती है , या तीन इन्क्रीमेण्ट रोक दिए जाते हैं या ......केवल एक ही मामला है इस विश्वविद्यालय के इतिहास में कि यौन-प्रताड़ना प्रकरण में एक प्रोफेसर साहब को नौकरी गंवानी पड़ी थी .

लेकिन विमला रस्तोगी एक सरकारी दफ्तर में नौकरी करती थी , जहां किसी अधिकारी के खिलाफ शिकायत करना अपराध था । उसकी सजा नौकरी से बर्खास्तगी या स्थानांतारण था . आप कहते हैं कि बर्खास्तगी विश्वविद्यालय में भी होती है . बताया न कि इस विश्वविद्यालय के इतिहास में केवल एक ही प्रोफेसर को नौकरी से हटाया गया . हां , नौकरी जाती है उन्हीं की जो अनुबन्ध पर या एडहॉक होते हैं . नियमित की बर्खास्तगी आसान नहीं . आपने ही बताया कि वहां ' यूनियन ताकतवर है '..... . आप सही कहते हैं . शिक्षकों की यूनियन ताकतवर है . उनकी मांगों के सामने सरकार तक घुटने टेक देती है . वह हड़ताल की धमकी देती है और सरकार दुम हिलाती नजर आती है . लेकिन मित्र , कर्मचारी यूनियन यदि ताकतवर होती तो स्थिति ही कुछ और होती . मुझे लगता है कि इस यूनियन में अवसरवादी बैठे हैं जो अपने निजी लाभ के लिए उच्चाधिकारियों के विरुद्ध आवाज उठाना पसंद नहीं करते . और यदि करते हैं तो केवल अपने हित साधन के लिए .

लेकिन मैं चाहता हूं कि अब आप चुप रहें . विमला रस्तोगी की चर्चा चलते ही यदि आप अर्पिता वर्मा या विश्वविद्यालय के प्रसंग छेड़ते रहे तो मैं विमला रस्तोगी की बात आप तक नहीं पहुंचा पाऊंगा , जिसे मैं ही पहुंचा सकता हूं क्योंकि मैं उसका सहयोगी जो था .
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विमला रस्तोगी ने बी।ए. किया ही था कि उसके पिता की मृत्यु हो गयी . उन दिनों कर्मचारी की मृत्यु पर परिवार के किसी सदस्य , पत्नी या बच्चे को , अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल जाती थी . विमला रस्तोगी पिता के स्थान पर क्लर्क बनकर महानिदेशालय कार्यालय में आयी . उन्हीं दिनों यू.डी.सी. के रूप में मैं भी उस कार्यालय में नियुक्त हुआ . विमला को मेरे ही अनुभाग में टाइपिगं के काम में लगाया गया . तीखे नाक-नक्श की सुन्दर लड़की थी वह , जिसके बाल कमर से नीचे तक लटकते रहते थे , जिनमें वह दो बेड़ियां गूंथतीं थी . और जब वह चलती तब दोनों चोटियां सर्पिणी की भांति नितम्बों पर हिलती-डुलती रहतीं थीं .

महानिदेशक कार्यालय का यह नियम था , हो सकता है उस विश्वविद्यालय में भी हो , कि जो भी नया व्यक्ति वहां नियुक्त होकर आता , दो-चार दिन में उसकी पेशी महानिदेशक वेणु कामथ के सामने अवश्य होती । मेरी भी हुई और मैंने पाया कि वेणु कामथ बहुत मधुर ओर सौम्य स्वभाव का व्यक्ति था . साक्षात्कार के दोरान मेरी टांगे और आवाज कांप रही थीं , क्योंकि अनुभाग वालों ने कहा था कि दबकर ही उत्तर दूं ..... साहब नाराज न हों , खयाल रखूं . इससे मैं भयभीत था . शायद कामथ ने यह समझ लिया था और साहस देते हुए कहा था कि ईमानदारी से अपना काम करूं और यदि कोई पेरेशानी अनुभव करूं तब पी.ए. के माध्यम से उनसे मिलकर बताऊं .

महानिदेशक के कमरे से बाहर आया तब मैं कुछ और ही था . भय जा चुका था , क्योंकि कामथ ने मुझसे प्रेम से बात की थी और जब विमला रस्तोगी की पेशी हुई , उसे मुझसे भी अधिक प्यार-दुलार से कामथ ने समझाया. विमला भी गदगद थी . वह मित-भाषी थी . अधिकतर अपनी ही सीट पर चिपकी रहने वाली . कभी बात भी करती तो मुझसे , क्योंकि मैंने उससे एक सप्ताह पहले ज्वाइन किया था .
महानिदेशक कार्यायल में उन दिनों दस और महिलाएं थीं । लंच के समय वे एक साथ लंच करतीं . उनके आग्रह पुनराग्रह से विमला उनके साथ लंच करने लगी थी . मेरे परिचितों का दायरा भी बढ़ने लगा था . मैं भी लंच में दो-चार बाबुओं के साथ घूमने जाने लगा . एक दिन एक सहयोगी बोला , ''छ: महीने बीतने को आए , कामथ ने विमला रस्तोगी को याद नहीं किया ?''

''क्यों ?'' मैंने पूछा ।

सहयोगी के चेहरे पर व्यंग्य मुस्कान थी , ''तुझे कुछ नहीं मालूम ?''

''क्या ऽऽऽ ?''

''शिकार ।''

''कैसा ?'' मैं चौंका था । सहयोगी , जो तीन थे , ठठाकर हंसे थे . हम आईसक्रीम वाले के पास थे . आईसक्रीम ली गई और बात आई गई हो गई थी .

और ठीक उसके अगले सप्ताह सुबह दस बजे प्रशासनिक अनुभाग पांच , जिसका काम अफसरों और उनके बीबी-बच्चों और बंगलों का खयाल रखना था , का अनुभाग अधिकारी विमला रस्तोगी के पास झुका हुआ कुछ फुसफुसा रहा था । विमला रस्तोगी एक सादा कागज और पेन लेकर उसके पीछे हो ली थी . अनुभाग के बाबुओं ने आंखों ही आंखों में एक-दूसरे से कुछ बातें की थीं . मेरा अनुभाग अधिकारी फाइल पर सिर झुकाए कोई नोट तैयार कर रहा था . उसका चेहरा लाल हो उठा था और उसका हाथ कांप रहा था . सच यह था कि अनुभाग के सभी बाबुओं के चेहरों पर तनाव था . उन्हें लग रहा था कि अनुभाग पांच का अनुभाग अधिकारी उनकी मांद में घुसकर बकरी उठा ले गया था और वे विवश थे कि अपना विरोध भी न जता सके थे . क्षणभर बाद ही सभी के सिर गर्दनों पर यों लटक गए थे मानों वे मुर्दा थे . मैं भौंचक एकाधिक बार उन्हें देख काम करने का प्रयत्न करने लगा था .

बीस मिनट भी न बीते थे कि विमला रस्तोगी दरवाजे पर प्रकट हुई । उसका चेहरा पीला और आंसुओं से भीगा हुआ था . सीट पर बैठते ही उसने टाइप राइटर पर सिर रख लिया और सुबक-सुबक कर रोने लगी . उसके आते ही मेरा अनुभाग अधिकारी फाइल दबा कमरे से बाहर निकल गया . अनुभाग के अन्य चारों बाबू क्रमश: एक-एक कर मुझसे यह कहकर चले गए कि वे चाय पीने जा रहे थे . मैं विमला रस्तोगी से कुछ पूछना चाहता था , लेकिन पूछ नहीं सका . भय , जुगुप्सा और आंशका के मिले-जुले भाव ने मुझे घेर लिया और मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा बैठा रहा .

लगभग एक घण्टा बीत गया । इस बीच अनुभाग अधिकारी फाइल दबाए दबे पांव कमरे में प्रकट हुआ . उसका चेहरा अभी भी लाल था . बिना बोले नयी फाइल पर सिर झुका वह कुछ पढ़ने लगा था . मैं समझ रहा था कि वह पढ़ नहीं रहा था केवल पढ़ने का बहाना कर रहा था . अनुभाग अधिकारी के बाद एक-एक कर चारों बाबू आ गए और अपनी सीटों पर सिर झुकाकर बैठ गए . विमला रस्तोगी अभी -भी टाइपराइटर पर सिर रखे थी . कमरे में मृत्यु -सा सन्नाटा व्याप्त था . सन्नाटा प्रशासनिक अनुभाग दो के अनुभाग अधिकारी के आने से टूटा . उसके हाथ में एक आदेश की तीन प्रतियां थीं . उसने दरवाजे से ही आवाज दी , ''विमला रस्तोगी ऽऽऽ!''

वह एक दक्षिण भारतीय था .....संभवत: तमिल । उसे हिन्दी नहीं आती थी . विमला ने सिर नहीं उठाया . अनुभाग अधिकारी की आवाज कुछ ऊंची और तीखी हो उठी , ''आपको दफ्तर का डिसिप्लिन नईं मालूम ?'' अंग्रेजी में वह बोला . विमला ने सिर उठाया . आंसुओं की लकीरें उसके मुर्झाए चेहरे पर स्पष्ट थीं . आंखें सूजी हुई थीं .

''ये आपका ट्रांसफर आर्डर है । रिसीव करें .....''

विमला का चेहरा फीका पड़ गया । वह शायद नहीं समझ पा रही थी कि उसे क्या करना चाहिए . तभी सामने खड़ा व्यक्ति तमिल लहजे में अंग्रेजी में चीखा , '' जल्दी कीजिए और इसे लेकर तुरंत दफ्तर से चली जाइए . डी.जी. साहब का आदेश है . शुक्र है नौकरी नई गई . अभी प्रोबेशन पर है ..... और नखरे तो देखो.....''

वह क्षणभर के लिए रुका , ''दस दिन का ज्वाइनिगं टाइम दिया है । आपको चेन्नई के निदेशक कार्यालय में रिपोर्ट करना मांगता . ओ.के......ऽऽ ''

विमला ने कांपते हाथों ट्रांसफर आर्डर ले लिया । प्रशासन दो का अनुभाग अधिकारी मेरे अनुभाग अधिकारी से उसी कड़क स्वर में बोला , ''मिस्टर सिंह , एक कॉपी आपके लिए .....'' और रिसीव करने के लिए उसने तीसरी प्रति सिंह के आगे बढ़ा दी .

विमला रस्तोगी झटके से उठी । रूमाल से चेहरा पोछा . एक दृष्टि सब पर डाली . मुझे लगा शायद उस समय वह कहना चाह रही थी , ''तुम सब कापुरुष हो ....सब ........'' संभव है वह कुछ और ही कहना चाह रही हो . यह भी संभव है कुछ कहना ही न चाहती हो . बहरहाल , वह पर्स झुलाती कमरे से बाहर निकल गई थी किसी से कुछ कहे बिना . उस समय उसकी चाल में शिथिलता न थी ..... समर्पण के बजाए उसने सजा स्वीकार कर ली थी .

विमला रस्तोगी पर अपने दो छोटे भाइयों और मां का बोझ था , लेकिन वह चेन्नई नहीं गयी थी . पता चला उसने त्याग पत्र दे दिया था .
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आपकी बात सही है कि अर्पिता वर्मा प्रकरण ने आज मुझे सहसा विमला रस्तोगी की याद दिला दी . लेकिन मित्र , इस देश में हजारों -हजारों अर्पिता वर्मा और विमला रस्तोगी हैं , जिन पर न किसी पत्रकार की दृष्टि पड़ी न किसी लेखक की और दरिन्दों का खेल बदस्तूर जारी है .
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कहानी-२७



पर्यावरण के संबन्ध में उसे इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में वक्तव्य देना था। हारवर्ड विश्वविद्यालय से 'पर्यावरण प्रबन्धन ' की उपाधि लेकर जब एक साल पहले वह स्वदेश लौटा, सरकार के पर्यावरण विभाग ने उसकी सेवाएँ लेने के लिए कई प्रस्ताव भेजे। लेकिन स्वयं कुछ करने के उद्देश्य से उसने सरकारी प्रस्तावों पर उदासीनता दिखाई। वह जानता है कि ऐसी किसी संस्था से बँधने से उसकी स्वतंत्रोन्मुख सोच और विकास बाधित होंगे। वह स्वयं को अपने देश तक ही सीमित नहीं रखना चाहता, बावजूद इसके कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ देश के लिए देना चाहता है।
पर्किंग से गाड़ी निकालते समय पिता ने पूछा, ''अमि, (उसका पूरा नाम अमित है ) कब तक लौट आओगे?''''दो घण्टे का सेमीनार है बाबू जी।.... नौ तो बज ही जाएँगे।'' पिता चुप रहे, लेकिन वह सोचे बिना नहीं रह सका, 'अवश्य कोई बात है, वर्ना बाबू जी उसके आने के विषय में कभी नहीं पूछते।' गेट से पहले गाड़ी रोक वह उतरा और 'कोई खास बात बाबू जी?'' पूछा।''हाँ....आं.....'' बाबू जी मंद स्वर में बोले, ''मेरा मित्र अमृत है न!..... उसकी बेटी की शादी है।...रोहिणी में....''''सेमीनार खत्म होते ही निकल आऊँगा।''
''तुम परेशान मत होना। मैं ऑटो ले लूँगा।....'' बाबू जी ने सकुचाते हुए कहा।
''कार्यक्रम आठ बजे समाप्त हो जाएगा। लोगों से बिना मिले निकल आऊँगा..... यहाँ पहुँचने में एक घण्टा तो लग ही जाएगा, लेकिन आप ऑटो के चक्कर में नहीं पड़ेंगे.....मैं आ जाऊँगा।'' उसने पिता को बॉय किया और गाड़ी स्टार्ट कर सड़क पर उतर गया।
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अमित जब हारवर्ड पढ़ने गया था, माँ जीवित थीं। पिता रेल मंत्रालय से निदेशक पद से अवकाश प्राप्त कर चुके थे। माँ-बाप का वह इकलौता बेटा था। उन लोगों ने कभी अपनी इच्छाएँ उस पर नहीं थोंपीं, लेकिन उसने भी उन्हें कभी निराश नहीं किया। हारवर्ड जाने के एक वर्ष बाद ही माँ का निधन हो गया। पिता अकेले रह गये। पटेल नगर के तीन सौ वर्ग गज के उस मकान में नितांत एकाकी। उसने वापस लौटने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन पता ने पहली बार उसे सख्त आदेश सुनाया, ''मेरे लिए लौटने की बात तुम्हारे दिमाग में आयी कैसे अमि.... अपनी शिक्षा पूरी करो।... '' कुछ देर तक चुप रहे थे बाबू जी और वह सिर झुकाए उनके सामने बैठा रहा था। तब वह माँ के दसवें पर आया था।
''तुम्हें दूसरों से कुछ अलग करना चाहिए।....अलग बनना चाहिए। मेरे लिए अगले दस वर्षों तक तुम्हें सोचने की आवश्यकता नहीं है। नौकरी से अवकाश ग्रहण किया है।... शरीर और मन से नहीं। वंदना।...तुम्हारी माँ थी तो अधिक बल था, लेकिन।...'' पिता फिर चुप हो गए थे। अतीत में खो गए थे वह। कुछ देर की चुप्पी के बाद वह धीमे स्वर में फिर बोले, ''तुम्हें कुछ ऐसा करना है, जिससे देश-समाज....देशान्तर को लााभ पहुँचे।....नौकरी सभी कर लेते हैं, लेकिन दुनिया उससे आगे भी है.....''
अमित चुपचाप पिता की ओर देखता रहा था।
पढ़ाई समाप्त कर लौटने के बाद पिता ने केवल एक बार पूछा, ''क्या करना चाहते हो?''
''फिलहाल नौकरी नहीं।...अपना कुछ करने के विषय में सोच रहा हूँ।''
''अपना।....?''
''पर्यावरण सम्बन्धी एक संस्था स्थापित करना चाहता हूँ.......''
''हुँह ।'' कुछ देर की चुप्पी के बाद।....कुछ सोचते हुए पिता बोले, ''अच्छा विचार है।''
संस्था को लेकर उसने देश के पर्यावरणविदों से सलाह करना प्रारंभ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने पहले उसे अपने सेमीनारों में श्रोता के रूप में, फिर वक्ता के रूप में बुलाना प्रारंभ कर दिया था ।
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सेमीनार खत्म होते ही वह निकलने लगा। चाहता था कि कोई उसे देखे, टोके-रोके, उससे पहले ही वह गाड़ी में जा बैठे, लेकिन वैसा हुआ नहीं। वह हाल से बाहर निकला ही था कि सामने दिल्ली के प्रसिध्द पर्यावरणविद डॉ. मुरलीधरन टकरा गए।
''क्या खूब बोलते हो नौजवान!'' पकी दाढ़ी और सफेद बोलों में स्पष्ट वैज्ञाानिक दिखनेवाले मुरलीधरन बोले, डॉ. सुनीता नारायण को तुम जैसे युवकों से परामर्श लेना चाहिए। ''
''सर, वह बहुत विद्वान हैं।.... विश्व में उनकी पहचान है। मैं तो अभी।...''
''यही न कि अभी कम उम्र - कम अनुभवी हो!'' ठठाकर हंसे मुरीधरन तो वह संकुचित हो उठा।
दोनों देर तक चुप रहे। अंतत: कुछ सोचकर, शायद यह भांपकर कि उसे चलने की जल्दी है, मुरलीधरन बोले, ''ओ। के। यंगमैन, हम फिर मिलेंगें। ''
''जी सर।'' वह गाड़ी की ओर बढ़ा यह सोचते हुए कि अनुभवी लोग चेहरे से ही अनुमान लगा लेते हैं कि कोई क्या सोच रहा है।'
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वह सामान्य गति से गाड़ी चला रहा था। कभी तेज गाड़ी चलाता भी नहीं वह। दिल्ली की सड़कें और ट्रैफिक की अराजकता।.... वह पैंतालीस-पचास तो कहीं -कहीं बीस-तीस की गति से चला रहा था। तालकटोरा स्टेडियम के पास गोल चक्कर पर टै्रफिक कुछ अधिक था। उसकी गाड़ी रेंग-सी रही थी। तभी उसके बगल में हट्टा -कट्टा लगभग बत्तीस वर्ष के युवक ने अपनी पल्सर रोकी और चीखता हुआ बोला, ''गाड़ी चलानी नहीं आती? गाड़ी (मोटरसाइकिल) को टक्कर मार देता अभी।''
वह भौंचक था, क्योंकि उसकी जानकारी में कुछ हुआ ही नहीं था। उसने धीमे और सधे स्वर में, जैसा कि उसका स्वभाव था, कहा, ''टक्कर लगी तो नहीं! ''
वह कुछ समझ पाता उससे पहले ही मोटर साइकिल सवार ने मोटर साइकिल आगे बढाकर उसकी कार के आगे लगा दी। वह गोल चक्कर पारकर शंकर रोड चौराहे की ओर कुछ कदम ही आगे बढ़ा था। उसने गाड़ी रोक दी। मोटरसाइकिल सवार युवक उसकी ओर झपटा। वह कुछ समझ पाता उससे पहले ही उसने उसे गाड़ी से बाहर खींचा और फुटपाथ की ओर घसीटने लगा।
''बात क्या है।... आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?'' विरोध करता हुआ वह उसकी मजबूत पकड़ के समक्ष अपने को असहाय पा रहा था।
''तेरी माँ की।....बताता हूँ कि बात क्या है।....मादर।...के कहता है कि लगी तो नहीं।...'' युवक का झन्नाटेदार तमाचा उसके गाल पर पड़ा। वह लड़खड़ा गया। उसे चक्कर -सा आ गया। जब तक वह संभलता मोटर साइकिल सवार का दूसरा तमाचा उसके दूसरे गाल पर पड़ा।
पैदल चलने वालों की भीड़ इकट्ठा हो गयी। लेकिन कोई भी वाहन वाला नहीं रुका। भीड़ मूक दर्शक थी और मोटर साइकिल सवार युवक दरिन्दे की भांति उस पर लात-घूँसे बरसा रहा था। लगभग अधमरा कर उसने उसे छोड़ दिया और फुटपाथ से नीचे उतरकर घूरकर उसे देखने लगा। अमित फुटपाथ पर पसरा हुआ था।... निस्पंद। भीड़ में कुछ लोग अपनी राह चल पड़े थे। कुछ खड़े थे।..... लेकिन उनमें अभी भी साहस नहीं था कि वे अमित को उठा सकते, क्योंकि मोटर साइकिल सवार वहीं खड़ा था अमित को घूरता हुआ।
लगभग दस मिनट बाद उसने आँखें खोलीं और किसी प्रकार उठकर बैठा। बैठते ही उसका हाथ मोबाइल पर गया। उसका दिमाग, जो सुन्न था, अब काम करने लगा था। पिता को यह बताने के लिए कि पहुँचने में उसे कुछ देर हो जाएगी, वह उनका नम्बर मिलाने लगा। उसे नम्बर मिलाता देख मोटर साइकिल सवार झपटकर फुटपाथ पर चढ़ा और उससे मोबाइल छीनते हुए उसके जबड़े पर मारकर चीखा, ''धी के..... पुलिस को फोन करता है।....स्साले इतने से ही सबक ले।... शुक्र मना कि बच गया।...'' उसने अमित का फोन अपनी जेब के हवाले किया, मोटर साइकिल स्टार्ट की और अमित के इर्द-गिर्द खड़े लोगों को हिकारत से देखता हुआ तेज गति से शंकर रोड चौराहे की ओर मोटर साइकिल दौड़ा ले गया।
अमित फिर फुटपाथ पर लेट गया। भीड़ फुसफुसा रही थी ''अस्पताल ले जाना चाहिए....'' ''कैसा दरिन्दा था! रुई की तरह धुन डाला.....''''पुलिस को फोन करना चाहिए।''''पुलिस के लफड़े में पड़ना ठीक नहीं।''''वह कोई गुण्डा था!''''दिल्ली में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।....''''दिल्ली गुण्डों।.......बाइकर्स के आंतक में जी रही है और पुलिस असहाय है।''''भाई पुलिस वालों के वे साले जो लगते हैं।...हफ्ता पुजाते हैं। असहाय-वसहाय कुछ नहीं है..... जिसने हफ्ता नहीं दिया..... हवालात उसके लिए है।'' एक दूसरी आवाज थी।''राम सेवक....तुम्हें गाड़ी चलानी आती है न! '' किसी ने अपने साथी से पूछा।''आती है।''''फिर हम दोनों इन्हें राममनोहर लोहिया अस्पताल ले चलते हैं।...इन्हीं की गाड़ी में।...''अमित सभी को सुन रहा था। उसने आंखें खोलीं। दो लोग उसके ऊपर झुके हुए थे। दूसरे कुछ हटकर खड़े थे।''बाबू।...हम आपको अस्पताल पहुँचा देते हैं।''अमित चुप रहा।
''हाँ, आपकी ही गाड़ी से।....''''धन्यवाद।'' अमित फुसफुसाकर बोला, ''आप लोग कष्ट न करें।...मैं ठीक हूँ।''
रामसेवक और उसका साथी एक-दूसरे के चेहरे देखते कुछ देर खड़े रहे, फिर बिड़ला मंदिर की ओर मुड़कर चले गए। दूसरे ने पहले ही जाना प्रारंभ कर दिया था।
लगभग पन्द्रह मिनट बाद अमित ने साहस बटोरा और उठ बैठा। सिर अभी भी चकरा रहा था। उसे चिन्ता हो रही थी उसकी प्रतीक्षा करते बाबू जी की। वह अपने को रोक नहीं पाया। आहिस्ता से फुटपाथ से नीचे उतरा, गाड़ी में बैठा और चल पड़ा। एक्सीलेटर, ब्रेक और क्लच पर पैर ढंग से नहीं पड़ रहे थे। फिर भी वह धीमी गति से गाड़ी चलाता रहा।
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राजेन्द्र नगर की रेड लाइट तक पहुँचने में उसे काफी समय लगा। चौराहा पार कर वह किसी पी.सी.ओ. से पिता को फोन करना चाहता था। लेकिन जैसे ही वह रेड लाइट के निकट पहुँचा, वहाँ का दृश्य देख उसे चक्कर-सा आता अनुभव हुआ। रेड लाइट से कुछ पहले बाईं ओर एक मोटर साइकिल पड़ी हुई थी और उससे कुछ दूर एक युवक के इर्द-गिर्द खड़े कई लोग पुलिस को कोस रहे थे।
उसने सड़क किनारे गाड़ी खड़ी की।.... उतरा। कुछ देर पहले अपने साथ हुआ हादसा उसके दिमाग में ताजा हो उठा, ' तो यह उस युवक का नया शिकार था।' उसने सोचा और धीमी गति से आगे बढ़ा। चोट के कारण वह तेज नहीं चल पा रहा था।
''टक्कर इतनी जबरदस्त थी।..... शुक्र है कि गाड़ी इसके ऊपर से नहीं गुजरी।'' भीड़ में कोई कह रहा था।
''किस गाड़ी ने टक्कर मारी?'' कोई पूछ रहा था।
'' ब्लू लाइन बस थी ।....मैंने देखा।....मैं उस समय उधर पेशाब कर रहा था '' कहने वाले ने हाथ उठाकर पेशाब करने की जगह की ओर इशारा किया। ''तेज आवाज हुई तो मैंने मुड़कर देखा।'' बोलने वाला क्षणभर के लिए रुका, ''बस ने टक्कर नहीं मारी भाई जान! मोटरसाइकिल इतनी तेज थी।....इतनी।... रहा होगा ये सौ से ऊपर की स्पीड में।...यही टकराया बस से और मोटर साइकिल इधर और यह उधर।...बच गया। लेकिन चोट बहुत है।''
अमित आगे बढ़ा।
''कितनी देर हुई? '' उसने एक व्यक्ति से पूछा।''यही कोई आध घण्टा।...''''आध घण्टा।...और आप लोग खड़े इसे देख रहे हैं? पुलिस को किसी ने सूचित किया?'' वह यह कह तो गया लेकिन तत्काल सोचा कि अपरिचित राहगीरों से उसे इसप्रकार नहीं बोलना चाहिए था।
अमित के प्रश्न पर मौन छा गया था। कुछ देर बाद किसी की बुदबुदाहट सुनाई दी, ''पी.सी.आर. वैन यहीं खड़ी रहती है।... आज नदारत है।''''पुलिस को फोन करके कौन मुसीबत मोल ले।'' भीड़ में कोई और बुदबुदाया।
अमित चुप रहा। वह घायल युवक के पास पहुँचा और उसे देख भोंचक रह गया। वह वही युवक था जिसने कुछ देर पहले अकारण ही बुरी तरह उसे पीटा था।
' मैं इसे अस्पताल पहुँचाऊँ? ' अमित के मन में विचार कौंधा।'कदापि नहीं।' लेकिन तभी अंदर से एक आवाज आयी, ' अमित, तुम्हें दूसरों से कुछ अलग करना है।....अलग बनना है,' यह पिता की आवाज थी।' मैं इसे अस्पताल पहुँचाऊँगा।...राम मनोहर लोहिया अस्पताल पास में है।' उसने निर्णय कर लिया और वहाँ एकत्रित लोगों से बोला, ''आप लोग इतनी सहायता करें कि इसे उठाकर मेरी गाड़ी में पीछे की सीट पर लेटा दें। इसे अस्पताल ले जाऊँगा।''''मैं भी आपके साथ चलता हूँ।'' एक व्यक्ति बोला।''आप परेशान न हों।...केवल गाड़ी में इसे लेटा दें....बस।....''
******
अस्पताल में जिस समय एमरजेंसी के सामने उसने गाड़ी रोकी मोटर साइकिल सवार को होश आ गया। उसे देख कराहते हुए वह चीखा, ''तुम.....तुम....sss '' और वह फिर बेहोश हो गया था।

Wednesday, October 21, 2009

कहानी - २६



खण्डित स्वप्न

रूपसिंह चन्देल

कॉलेज में आज भी मीटिंग देर से समाप्त हुई . जब वे घर पहुंची , साढ़े जीन बज रहे थे . दरवाजा खोलते ही नौकरानी पूछ बैठी , ‘‘बीबीजी , आज फिर देर कर दी .....’’ लेकिन उसकी बात का उत्तर दिए बिना उससे जल्दी खाना लगा देने के लिए कहकर बिना कपड़े बदले ही वह बाथरूम चली गयीं और जब बाहर निकलीं , उनके चेहरे से दिन भर की थकान के चिन्ह मिट चुके थे .
पेट में चूहों को धमाचैकड़ी करते दो घंटे से अधिक हो चुके थे . वे सीधे डाइनिंग रूम में जा पहुंचीं . रोजाना की भांति रामकली ने टेबुल पर खाना सजा दिया था .वे खाना शुरू ही करने वाली थीं कि रामकली ने उन्हें एक लिफाफा पकड़ा दिया . बोली , ‘‘मुआ डाकिया लिफाफा दे ही नहीं रहा था . कहता था मेम सा‘ब के नाम है , मैं उन्हीं को दूंगा . बड़ी मुश्किल से माना .’’ कहकर वह उनकी प्रतिक्रया जानने के लिए उनकी ओर देखने लगी . लेकिन दीपाली ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की . वे उलट-पलटकर लिफाफे को देखती रहीं .
आखिर उन्होंने लिफाफा खोल डाला . उसमें जो कुछ था , उसे देख उनका मन उद्वेलित हो उठा , मानो सरोवर के स्थिर जल में कंकड़ फेंक दिया गया हो .उन्होंने कागजों को मेज पर रख दिया और रामकली को वहां से जाने के लिए कहा . उसके जाने के बाद सिर को कुर्सी से टिकाकर वे सोचने लगीं , ‘तो विजय के साथ संबन्धों की यही अंतिम परिणति होनी थी .... इतने दिनों में ही सब कुछ बेमानी हो गया --- प्रेम...रिश्ते....इंसानियत....’ और वे धीरे-धीरे अतीत की अंधेरी गुफाओं में धंसती चलीं गयीं .
****
उन दिनों वे एम. ए. फाइनल में थीं . प्रतिवर्ष की भांति उस वर्ष भी कॉलेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर छात्र संघ की ओर से एक नाटक मंचित होना था . नाटक था ‘आभिज्ञान शाकुन्तल’ . छात्रसंघ के सामने एक गंभीर संमस्या पैदा हो गयी -- शकुन्तला की भूमिका को लेकर . कॉलेज की कोई भी छात्रा उस भूमिका के लिए तैयार न थी . वार्षिकोत्सव के दिन निकट आते जा रहे थे , रिहर्सल शुरू हो चुकी थी , लेकिन शकुन्तला का स्थान रिक्त था . तभी एक दिन छात्र संघ के अध्यक्ष महेन्द्र के साथ विजय उनके पास आए . काफी देर तक वे शकुन्ला के अभिनय के लिए उन्हें समझाते रहे . उन्होंने दूसरे दिन अपना निर्णय बताने के लिए कहकर उन्हें टाल दिया था .
लेकिन कॉलेज से घर वापस जाते समय पूरे रास्ते वे सोचती रही कि वे शकुन्तला का अभिनय कर सकती हैं या नहीं .... और घर तक पहुंचते-चहुंचते इस निर्णय पर पहुंची कि वे यह अभिनय कर सकेंगी . और दूसरे दिन महेन्द्र और विजय को उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी थी .
वार्षिकोत्सव के दिन नाटक मंचित हुआ . दुष्यन्त का अभिनय विजय कर रहे थे . नाटक बहुत सफल रहा था . नगर में दोनों के अभिनय की चर्चा थी . समाचारपत्रों ने विशेष प्रशंसात्मक टिप्पणियों के साथ उन दोनों के चित्र प्रकाशित किये थे . नाटक की सफलता के बाद वे और विजय अनायास ही एक-दूसरे के निकट आ गये थे . विजय उनके सहपाठी थे और उसके बाद प्रायः ही उनके घर आने लगे थे . धीरे-धीरे वे महसूस करने लगी थीं कि वे वास्तव में ही शकुन्तला हैं और विजय दुष्यन्त .एक दिन वे फूलबाग में टहल रहे थे . टहलते हुए अचानक विजय रुक गये और दोनों कन्धों के पास उन्हें पकड़कर बोले , ‘‘दीपा , मैं तुमसे बहुत दिनों से एक बात कहना चाह रहा था . ’’
‘‘कहो .’’ उन्होंने जिज्ञासा-भरी नजरें विजय के चेहरे पर गड़ा दी थीं .
‘‘यह , मैं नहीं जानता कि तुम मेरे बारे में क्या सोचती हो , लेकिन सच मानों तुम्हें लेकर मैं तमाम स्वप्न ....’’ आगे वह कुछ बोल न पाये थे .
वे भी उस क्षण भावुक हो उठी थीं . बिना बोले ही विजय की आंखों में कितनी ही देर तक देखती रही थीं और उन्होंने उन आंखों में साकार होने के लिए मचलते हजारों स्वप्न देखे थे .
क्षणभर बाद उन्हें झकझोरते हुए विजय ने पूछा था , ‘‘पागलों की तरह क्या देख रही हो , दीपा ?’’
‘‘कुछ नहीं .... अच्छा , अब चला जाये . बहुत देर हो गयी ..’’
और दोनों चल पड़े थे .
*****
उस दिन के बाद विजय का अधिकांश समय उनके साथ ही बीतने लगा था . विजय के प्रस्ताव पर उन्होंने ‘कम्बाइंड स्टडी’ शुरू कर दी थी . कॉलेज से वह सीधे उनके घर आ जाते और रात देर तक पढ़ने के पश्चात घर जाते . समय तेजी से खिसकात रहा और परीक्षा सिर पर आ गयी . और एक दिन वह भी सम्पन्न हो गयी . परीक्षा के अंतिम दिन घर लौटते हुए विजय उन्हें एक रेस्टारेण्ट में ले गये . कॉफी पीते हुए उन्होंने सीधे शादी का प्रस्ताव रख दिया . वे उस समय फिर क्षणभर के लिए कहीं खो-सी गयी थीं . कप में पड़ी कॉफी ठंडी हो गयी . विजय भी कॉफी पीना भूलकर निर्निमेष उनके चेहरे पर आ-जा रहे भावों को देखते रहे थे . जब बेयरे ने आकर पूछा , ‘‘साब , और कुछ चाहिए ? ’’ तब दोनों की तन्द्रा दूर हुई थी .
‘‘अरे , कॉफी तो ठंडी हो गयी . तुमने पी क्यों नहीं ?’’‘‘‘आपने भी तो नहीं पी ....’’
‘‘अरे हां ....’’ फिर बेयरे को दो और कॉफी का आर्डर देकर विजय बोले , ‘‘दीपा , तुमने कोई उत्तर नहीं दिया .’’
‘‘कया उत्तर देना इतना आसान है ?’’
‘‘यह सब कुछ तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है . यदि तुम चाहोगी ....’’
‘‘लेकिन विजय , क्या हमारे मां-बाप इतनी आसानी से तैयार हो जायेंगे ?’’
‘‘मैं तुम्हारे ममी-पापा के विषय में नहीं बता सकता , लेकिन मेरे ममी-पापा को कोई आपत्ति न होगी .’’
वे कुछ सोचती रह गयी थीं . तभी बेयरा आ गया था . थोड़ी देर के लिए उत्तर देने से वे बच गयी थीं . लेकिन बिल चुकता करने के बाद जब दोनों रिक्शा पर सवार हुए विजय ने पुनः पूछ लिया , ‘‘क्या सोचा तुमने , दीपा ?’’
‘‘कुछ दिन सोचने दो .’’
‘‘ठीक है .’’
*****
लेकिन विजय के प्रस्ताव को वे अधिक दिनों तक टाल न सकीं थीं . विजय के असीम प्यार प्रदर्शान ने उन्हें स्वीकृति के लिए विवश कर दिया था . विजय को पा जाने की लालसा उनके अन्दर तीव्रतर हो उठी थी . उन्होंने अपना निर्णय ममी-पापा को बता दिया . लेकिन जैसी कि आशा थी , वही हुआ . विजय के साथ विवाह करना उन लोगों को स्वीकार न था . दो पीढि़यों के मध्य विचारों की टकराहट शुरू हो गयी थी . जैसे-जैसे ममी-पापा उनकी गतिविधियों को प्रतिबन्धित करते जा रहे थे , उनके मन में विजय के साथ विवाह करने का निश्चय दृढ़ होता जा रहा था .
और एक दिन लावा फूट ही पड़ा था . पापा का रुद्र रूप उन्होंने उस दिन पहली बार देखा था . उलटा-सीधा कहने के बाद उस दिन अंत में वे बोले थे , ‘‘दीपू , अगर तूने उसके साथ शादी की तो इस घर के दरवाजे तेरे लिए सदैव के लिए बन्द हो जायेंगे .’’ हथियार तो उन्होंने डाल दिए थे , किन्तु रूढि़वादी ऐंठ उनमें तब भी शेष थी .
जिस दिन परीक्षाफल घोषित हुआ , विजय दौड़ते हुए उन्हें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की बधाई देने आए थे . लेकिन उस समय पापा ने विजय का जो अपमान किया , उससे वे बौखला उठी थीं , किन्तु किसी प्रकार अपने को संयत किये रही थीं . उस क्षण उन्होंने उस घर को शिघ्र ही छोड़ देने का निर्णय किया था और उसके ठीक बीसवें दिन उन्होंने विजय के साथ ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली थी .
विजय उन दिनों समाचारपत्रों में रिक्त स्थान देखने लगे थे . कई जगह आवेदन भी किया लेकिन कहीं से काई उत्तर नहीं आया . वे स्वयं पी-एच.डी. करने के विषय में सोचने लगी थीं . एक दिन जब परिवार के सब लोग शाम की चाय ले रहे थे , उन्होंने दबी जुबान अपनी इच्छा जाहिर की . उनकी बात सुनते ही विजय के ममी-पापा एक साथ बोल उठे थे , ‘‘बहू , हमारी सामर्थ्य न तो अब विजय को आगे पढ़ाने की है और न ही तुम्हे .’’
पापा तो इतना ही कहकर चुप हो गये थे , किन्तु ममी आगे बोली थीं , ‘‘हां , अगर तुम्हारे पापा चाहें तो तुम्हें पढ़ा सकते हैं . उनके पास धन की कोई कमी भी तो नहीं .....’’
‘‘लेकिन ममी , अब उनसे कुछ भी अपेक्षा करना क्या उचित है ?’’
‘‘क्या बात कह रही हो , बहू ? मां -बाप आखिर मां-बाप ही होते हैं . थोड़े दिनों बाद बच्चों को माफ कर देते हैं . उन्हें कितनी सरलता से मेरा हीरा जैसा बेटा दामाद के रूप में मिल गया है .वह भी बिना दहेज . सोच बहू , अगर वे तुम्हारी शादी कहीं और करते तो .... खैर , तू तो खुद ही समझदार है , पढ़ी-लिखी है .’’
‘‘छोडिए भी ममी इन बातों को , ’’ कहकर विजय उठकर वहां से चले गये थे . वे भी रुक न पायी थीं . कमरे में जाकर बेड पर ढह गयी थीं . रात विजय की आहट पाकर उनकी नींद खुली थी . लेकिन उनसे बिना कोई बात किए बत्ती बुझाकर वह भी लेट गये थे .
उस दिन के बाद उस घर का वातावरण तनावपूर्ण हो उठा था . विजय के अतिरिक्त सभी उनसे कम बातें करने लगे थे और विजय को भी उनसे बात करने का वक्त कहां मिलता था . वह सुबह के निकले शाम को घर में प्रवेश करते थे . घर में सबके होते हुए एकाकीपन उन्हें डसता रहता था . शादी के बाद पूरे आठ महीने हो चुके थे विजय को भटकते हुए , लेकिन कहीं भी नौकरी नहीं मिली थी . एक सुबह अखबार में रिक्त स्थान देखते हुए वह उछल पड़े थे . डी.ए.वी. में लेक्चरर की पोस्ट निकली थी . उनके कन्धे झकझोरते हुए वह बोले थे , ‘‘दीपा , तुम आवेदन कर दो . तुम्हें यह पोस्ट मिल सकती है .’’
घर के वातावरण ने उन्हें उबा दिया था . विजय की ममी का व्यवहार उनके प्रति दिन-प्रतिदिन अत्यधिक रूखा और कड़वा होता जा रहा था . छोटी-छोटी’-सी बात में वह उन्हें प्रताडि़त करने लगती थीं . उन दिनों वास्तव में वे भयंकर मानसिक तनाव में जी रही थीं . यह उनके लिए एक सुखद अवसर था . उन्होंने आवेदन किया और साक्षात्कार में बिना किसी सिफारिश के चुन ली गयीं . लेकिन उनका नौकरी करना भी विजय के ममी-पापा को पसन्द नहीं आया . एक दिन उनके कॉलेज से लौटते ही उन लोगों ने स्पष्ट घोषणा की थी , ‘‘नौकरीपेशा बहू के लिए इस घर में कोई जगह नहीं है . यदि नौकरी करनी है तो जाकर रहो अपने पिता के घर .’’
एक ओर था भविष्य और दूसरी ओर था वर्तमान का कलहपूर्ण जीवन . उन्होंने विजय से बात की . लेकिन विजय ने कोई उत्तर नहीं दिया . आखिर कई दिनों की कलह के बाद उन्होंने विजय से स्पष्ट कह दिया , ‘‘अब वे उस घर में नहीं रह सकतीं . अलग मकान की व्यवस्था करेंगी .’’ विजय फिर भी चुप रहे थे .
लेकिन वे निर्णय कर चुकी थीं अलग रहने का . आखिर विजय को झुकना पड़ा . ब्रम्हनगर में दो कमरों की जगह किराये पर लेकर उस घर को भी उन्होंने एक दिन छोड़ दिया . किराये के मकान में आने के बाद उन्होंने विजय को आई. ए.एस. में बैठने के लिए प्रोत्साहित किया . उनकी सलाह विजय को पसन्द आयी और वह आई.ए.एस. की तैयारी में जुट गये . उस मकान में आने के चार महीने पश्चात विजय और उनके प्रेम का प्रतीक विभु पैदा हुआ . उन दिनों विजय आई.ए.एस. की परीक्षा देने गये हुए थे . कितनी परेशानियां उठानी पड़ी थीं उन्हें . दोनो घरों के दरवाजे उनके लिए बन्द थे . असहाय-सी उन्होंने पड़सी की कुण्डी खटखटाई थी . उस दिन उन्हें पहली बार एहसास हुआ था कि कभी-कभी गैर अपनों से अच्छे होते हैं .
पड़ोसी ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया था जहां रातभर उसकी पत्नी उनके साथ रही थी . पैदा होने के बाद विभु पर प्रथम दृष्टि पड़ते ही चीखकर उन्होंने आंखें बन्द कर ली थीं और नर्स से बोली थीं ‘‘सिस्टर , इस मांस के लोथड़े को ले जाइये . यह मेरा बच्चा नहीं है .... नहीं ...’’ और वे बेहोश हो गयी थीं .
लेकिन होश आने पर नर्स और पड़ोसिन के समझाने के बाद विभु को गोद में लेकर न जाने कितनी देर उसे देखती रही थीं . विभु का नीचे का भाग अपंग था . उसे अपनी छाती से लगाकर वे फूट-फूटकर रोती रही थीं .
दूसरे दिन विजय लौट आए थे . सीधे अस्पताल पहुंचकर उन्होंने पहले विभु को देखना चाहा था , लेकिन , उन्होंने केवल ऊपर का भाग ही उन्हें दिखया था . काफी देर तक बातें करने के बाद जब विजय उनके लिए फल और दूध लेने के लिए चलने लगे , उसी समय नर्स आ गयी और विभु की सफाई करने के लिए जैसे ही उसने ऊपर से कपड़े हटाए , विजय की दृष्टि विभु के पर पड़ी थी . विजय के मुंह से भी एकदम चीख निकल गयी थी , ‘‘दीपा , यह क्या है ?’’
‘‘तुम्हारे घर में मुझे मिली मानसिक यन्त्रणा का परिणाम ....’’ वे फूट-फूटकर रोने लगी थीं . नर्स ने विभु को संभालने के लिए उन्हें डपट दिया था और आंसू पोंछकर वे उसे गोद में उठाने लगी थीं . विजय कब चले गये , उन्हें पता नहीं चला था .
*****
विजय आई.ए.एस. में सिलेक्ट हो गये थे . प्रशिक्षण के लिए उन्हें मसूरी जाना था . जाने से एक दिन पहले बोले , ‘‘दीपा , तुम अकेले विभु और नौकरी दोनों कैसे संभाल पाओगी ?’’
‘‘मैं कल एक आया के लिए बात कर आयी हूं . वह दिनभर विभु की देखभाल किया करेगी . तुम चिन्ता न करों . थोड़े दिनों की बात है . जब तुम्हारी कहीं पोस्टिंग हो जायेगी तब मैं नौकरी छोड़ दूंगी .’’
विजय कुछ सोचने लगे थे .
‘‘तब तक विभु भी कुछ बड़ा हो जायेगा . तब हम दिल्ली या कहीं और इसका इलाज करवायेंगे . इसके इलाज के लिए भी तो पैसों की जरूरत होगी . विभु ठीक हो जाएगा .... ठीक हो जाएगा न , विजय . ’’ विजय की छाती से लगकर उन्होंने पूछा था .
‘‘क्यों नहीं ठीक होगा . इससे अधिक खराब केसेज ठीक हो जाते हैं .’’
‘‘विजय , उस दिन की कल्पना करो जब तुम किसी दफ्तर के इन्चार्ज होगे , हम सब एक साथ रह रहे होंगे . विभु स्कूल जाया करेगा और रात में हम तीनों एक साथ बैठकर भोजन किया करेंगे . कितना अच्छा होगा तब ....’’ आंखें बन्द किये वे बोली थीं .
‘‘बहुत अच्छा लगा करेगा दीपा , लेकिन तुम अधिक कल्पनाएं मत किया करो . ’’ उनके कान में चिकोटी काटते हुए विजय ने कहा था . ‘‘मेरी तैयारी की भी चिन्ता करोगी या बातें ही करती रहोगी .’’
वे विजय की तैयारी में जुट गयी थीं .
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मसूरी पहुंचकर विजय ने कई पत्र लिखे , जिनमें अपने प्रशिक्षण तथा प्रशिक्षणार्थियों के विषय में ही विस्तार से चर्चा की . वे भी हर पत्र का उत्तर देती रहीं और अपनी तथा विभु की चिन्ता न करने के विषय में उन्हें लिखती रहीं . कभी-कभी विजय के पत्र आने में देर हो जाती तब वह लगातार कई पत्र लिखकर उन्हें लापरवाही की याद भी दिला देती थीं .
एक बार लगभग पन्द्रह दिन तक उनका कोई पत्र नहीं आया . उन्होंने भी सोच लिया कि इस बार वे तब तक पत्र नहीं लिखेंगी जब तक विजय का पत्र नहीं आता . आखिर एक दिन उनका पत्र आया , जिसमें माफी मांगते हुए उन्होंने लिखा था , ‘‘दीपा , आजकल पढ़ाई तथा अन्य कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के कारण तुम्हें पत्र नहीं लिख पाया . मैं जानता हूं तम्हें अवश्य बुरा लग रहा होगा . भविष्य में ऐसा कभी नहीं होगा . ....यहां मेरे साथ लखनऊ की नीतासिंह भी प्रशिक्षण प्राप्त कर रहीं हैं . मेरी अच्छी मित्र बन गई हैं . कभी अवसर मिलने पर तुमसे मिलवाऊंगा . तुम उन्हें अव्श्य पसन्द करोगी .’’
उस पत्र में न तो विजय ने यह पूछा था कि वे कैसी हैं और न ही विभु के विषय में एक शब्द लिखा था . उन्हें यह अच्छा न लगा . उन्होंने कई दिनों बाद पत्र का उत्तर दिया . लेकिन विजय उनसे दस हाथ आगे निकले . उन्होंने एक महीने बाद उनके पत्र का उत्तर दिया . वह भी केवल चार पंक्तियों में . इन्हीं दिनों विभु बीमार हो गया , उसकी बीमारी में वे इस कदर उलझीं कि विजय को लिख नहीं पायीं . शहर के अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखाने के बाद भी वे विभु को बचा न सकीं . विभु उन्हें छोड़कर चला गया . विभु की मृत्यु ने उन्हें अन्दर से तोड़ दिया .
विभु की मृत्यु का समाचार विजय को देते हुए उन्होंने लिखा कि वह चाहे एक दिन के लिए घर आएं , किन्तु आएं अवश्य . लेकिन विजय नहीं आये . काफी दिनों बाद उनका पत्र आया जबलपुर से . उनकी वहां पोस्टिंग हो गयी थी . लेकिन उसमें उन्होंने केवल अपनी पोस्टिंग की सूचना ही दी थी . विभु की मृत्यु के विषय में एक शब्द भी न लिखा था . वही विजय का अंतिम पत्र था . उनका मन विजय से मिलने के लिए परेशान था . लेकिन विश्वविद्यालय की परीक्षाएं निकट थीं , जिससे वे उनसे मिलने भी नहीं जा सकती थीं .
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समय तेजी से गुजरता जा रहा था . उनकी परेशानी भी बढ़ती जा रही थी . जबलपुर के पते पर विजय को लिखे उनके अनेक पत्र अनुत्तरित रहे थे . और एक दिन उन्होंने निर्णय किया कि न तो वे विजय को पत्र लिखेंगी और न ही उनसे मिलने जाएंगी . उन्होंने अपने को पूरी तरह अध्ययन और अध्यापन में लगा दिया . दो वर्ष का समय कब और कैसे बीत गया , पता नहीं चला . दो वर्ष बाद उन्हें जो कुछ मिला , वह उनके सामने था तलाक के कागजातों के रूप में , जिसके साथ विजय का संक्षिप्त पत्र था , जिसमें उन्होंने कागजातों को हस्ताक्षर करके तुरंत लौटा देने का मात्र अनुरोध किया था .
उन्होंने एक नजर सामने रखी खाली प्लेटों पर डाली , जिसे ठीक उनके सामने नित्यप्रति की भांति रामकली ने सजा रखा था .
‘रामकली कितना खयाल रखती है मेरी भावनाओं का .’ वे सोचने लगीं , ‘यही तो था उनका स्वप्न . मेज के एक ओर वे होंगी , एक ओर विजय और एक ओर विभु.....’ लेकिन वह स्वप्न तो कब का खण्डित हो चुका .
उन्होंने पेन उठाया और तलाक के कागजातों पर हस्ताक्षर करने लगीं .
(1987)
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Friday, September 25, 2009

कहानी - २५

भेड़िये

रूपसिंह चन्देल

ठंड कुछ बढ़ गई थी। बौखलाई-सी हवा हू-हू करती हुई चल रही थी. उसने शरीर पर झीनी धोती के ऊपर एक पुरानी चादर लपेट रखी थी, लेकिन रह-रहकर हवा के तेज झोंके आवारा कुत्ते की तरह दौड़ते हुए आते और चादर के नीचे धोती को बेधते हुए बदन को झकझोर जाते. वह लगातार कांप रही थी और कांपने से बचने के लिए उसने दोनों हाथ मजबूती से छाती से बांध लिए थे; और दांतों को किटकिटाने से बचाने के लिए होठों को भींच रखा था.

‘भिखुआ आ जाता तो, कितना अच्छा होता.’ वह सोचने लगी –’किसी तरह छिप-छिपाकर दोनों उस शहर से दूर चले जाते, जहां वे उन्हें ढूंढ़ न पाते. आज चौथा दिन है उसे गए— न कोई चिट्ठी , न तार, जबकि जाते समय उसने कहा था कि तीसरे दिन वह जरूर आ जाएगा. बापू की तबीयत अगर ज्यादा खराब हुई तो उन्हें साथ लेता आएगा.’

मेनगेट के पास खड़े पीपल के पेड़ से कोई परिंदा पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ा, तो बिल्डिंग के अंधेरे कोने में छिपे कई चमगादड़ एक साथ बाहर निकल भागे। वह चौंक उठी और उन्हें देखने लगी. क्षण-भर बाद वे फिर अंधेरे कोनों में जा छिपे. तभी उसे लगा, जैसे कोई आ रहा है. उसने इधर-उधर देखा, कोई दिखाई नहीं पड़ा.

‘पता नहीं वह सिपाही कहां गुम हो गया— कह रहा था — अभी बुला लाता है थानेदार को। साहब सो रहे होंगे. रात भी तो काफी हो चुकी है. साहब लोग ठहरे—- आराम से उठेंगे, तब आएंगे—-’

उसे इस समय भिखुआ की याद कुछ अधिक ही आ रही थी. ’उसे जरूर आ जाना चाहिए था. हो सकता है, बापू की तबीयत कुछ ज्यादा खराब हो गई हो. न वह उन्हें ला पा रहा होगा, न आप आ पा रहा होगा. लेकिन उसे उसकी चिंता भी तो करनी ही चाहिए थी. जबकि उसने उस दिन उसे बता दिया था कि उनमें से एक — महावीरा को उसने सड़क के मोड़ वाली पान की दुकान पर खड़े देखा था.’
“तू नाहक काहे कू डरती है रे। उनकी अब इतनी हिम्मत नाय कि तोको लै जांय. मुफ्त मा नाय लाया था तोको. पूरे पांच हजार गिने थे—ऊ का नाम —- शिवमंगला को. बाद में ’कोरट’ में अपुन ने रजिस्ट्री भी तो करवा ली थी. अब अपुन को कौन अलग करि सकत है ?” भीखू ने उसके गाल थपथपाते हुए कहा था.

“तू कछू नाई जानत, भीखू, वो कितने जालिम हैं। शिवमंगला जो है न, यो सबते अपन को मेरा मामा बताउत है. वैसे भी यो मामा है, दूर-दराज का. मेरे बापू की लाचारी और मजबूरी का फायदा उठाकर इसी पापी ने मेरी पहली शादी करवाने का ढोंग किया था, बूढ़े बिरजू के साथ. खुद एक हजार लेकर, एक हजार बापू को दिए थे. और उसके बाद, मां और बापू के मरने के बाद, यो महावीरा के साथ मिलकर —- सातवीं बार तेरे हाथ मेरे को—–” वह रोने लगी थी.

“भूल भी जा अब पुरानी बातों को, सोनकी. अब कोई चिंता की बात नईं. मैं पुलिस-थाने को सब बता दूंगा. तू काहे को फिकर करती ?” उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरता हुआ भीखू बोला, तो वह निश्चिंत हो सोचने लगी थी कि दुनिया में अब कोई तो है उसका, जो उसे चाहने लगा है. उससे पहले शिवमंगला ने जिसके साथ भी उसे बांधा, साल-डेढ़ साल से अधिक नहीं रह पाई थी वह उसके साथ.
शिवमंगला पहले ही उससे कह देता, “साल-डेढ़ साल रह ले. जमा-पूंजी जान ले, कहां कितनी है. उसके बाद मैं एक दिन आऊंगा—तुझे लेने. सारी पूंजी बांध, चल देना. न-नुकर की, तो तड़पा-तड़पाकर मारूंगा.”
****

और वह चाबी-भरे खिलौने की तरह उसका कहना मानने को मजबूर होती रही सदैव. चौथे मरद के साथ जमना चाहा, तो पुलिस को साथ लेकर वह जा पहुंचा और उसको यह कहकर पकड़वा दिया कि वह उसकी इस अनाथ भांजी– सोनिया — को भगा लाया है. तब उसने चाहा था कि पुलिस को सब कुछ बता दे, लेकिन महावीरा ने कान के पास धीरे से कहा था, “अगर मुंह खोला—- तो समझ लेना—-.”
वह उनके साथ घिसटती चली गई थी, पांचवें के पास जाने के लिए. एक शहर से दूसरे शहर भटकती रही है वह, क्योंकि कभी भी उन्होंने उसे एक ही शहर में दूसरी बार नहीं बेचा. हर बार, जब तक कोई ग्राहक उन्हें नहीं मिलता, शिवमंगला खुद हर रात उसके शरीर से खेलता रहता. कभी-कभी इस खेल में महावीरा को भी शामिल कर लेता. वह कराहती, तड़पती, लेकिन शिवमंगला भूखे भेड़िये की तरह उसके शरीर को नोचता रहता और तब वह उस यातना से मुक्ति पाने के लिए कुछ दिनों के लिए ही सही, किसी-न-किसी के हातों बिक जाना बेहतर समझती.
***

खट—खट—खट ! गेट की ओर कुछ कदमों की आहट सुनाई पड़ी। कोई ट्रक चिघ्घाड़ता हुआ सड़क पर गुजरा. उसकी रोशनी में उसने चार सिपाहियों को अपनी ओर आते देखा. वह कुछ संभलकर बैठ गई. सोचा, शायद थानेदार साहब आ रहे हैं.

“तू यहां किसलिए—-ऎं !” चारों उसके सामने खड़े थे। वह सिपाही, जो थाने पहुंचते ही उसे मिला था और जिससे उसने थानेदार को बुलाने के लिए कहा था, उनके साथ था.

“हुजूर, मैं थानेदार साब को—- कुछ बतावन खातिर—-” कांपती हुई वह खड़ी हो गई।

“क्या बताना है ? इस समय वो कुछ नहीं सुनेंगे— सुबह आना।” लंबी मूंछोंवाला, जो आगे खड़ा था ओवरकोट पहने, गुर्राकर बोला.

“हुजूर, वो—वो– मेरे पीछे पड़े हैं। मैं –मैं…” उसकी जुबान लटपटा गई.

“तू उनके पीछे पड़ जा न—हा—हा—हा—हा—-।”

“दुबे, क्या इरादा है, मिलवा दिया जाए इसे थानेदार साब से ?” लंबी मूंछोंवाले के पीछे खड़े सिपाही ने, जिसके होंठ मोटे थे और उसने भी ओवरकोट पहन रखा था, बोला. शेष तीनों उसकी ओर देखने लगे. टिमटिमाते बल्ब की रोशनी में चारों ने आंखों ही आंखों में कुछ बात की और वापस मुड़ गए.
“अभी बुलाकर लाते हैं थानेदार साब को। तू यहीं बैठ.” जाते-जाते एक बोला.

चारों चले गए, तो वह आश्वस्त हुई थी कि थानेदार को जरूर बुला देंगे. वह फिर बैठ गई उसी प्रकार और सोचने लगी कि कैसे और क्या कहेगी वह थानेदार से. लेकिन जैसे भी हो, वह उसे सब कुछ बता देगी—- बचपन से अब तक क्या बीती है उस पर —- सब कुछ. धीरे-धीरे वह पुरानी स्मृतियों में खोने लगी. हवा का क्रोध कुछ शांत होता-सा लगा, लेकिन ठंड ज्यों-की-त्यों थी.
****

बापू ने बहुत सोच-विचारकर उसका नाम रखा था — सोनिया। एक कहानी बताई थी उन्होंने कभी उसे– जिस दिन वह पैदा हुई थी, बाप को मालिक के खेत में हल जोतते समय सोने का कंगन मिला था.बापू ने चुपचाप वह कंगन मालिक को दे दिया था. उनका कहना था कि जिसके खेत में उन्हें कंगन मिला है, उस पर उसी का अधिकार बनता है. मालिक ने उसके बदले दस रुपये इनाम दिए थे बापू को. वह उसी से खुश था—-”बेटी भाग्यवान है. तभी तो सोना मिला था मुझे. मैं इसका नाम सोनिया रखूंगा.” और उस दिन से ही वह सोनिया और दुलार-प्यार में सोना हो गई थी.

लेकिन बापू की कल्पना कितनी खोखली सिद्ध हुई थी। उसके जन्म के बाद घर की हालत और खस्ता होती चली गई थी. मां बीमार रहने लगी थी. काम करने वाला अकेला बापू– वह भी मजूर— और खाने वाले तीन. जब वह छः-सात साल की थी, तभी से बापू के साथ काम पर जाने लगी थी और जिन हाथों को पाटी और कलम-बोरकला पकड़ना था, वे खुरपी और हंसिया पकड़ने लगे थे. वह बड़ी होती गई—- मां चारपाई पकड़ती गई और बापू का शरीर कमजोर होता गया था. बापू उसे लेकर चिंतित रहने लगा था — उसके विवाह के लिए. कहां से लाएगा दहेज, जब खाने के लाले पड़े हों ! और तभी एक दिन मां की तबीयत अधिक बिगड़ गई थी.बापू इधर-उधर भटकता रहा था पैसों के लिए. उस दिन यही इसका दूर-दराज का मामा— शिवमंगला आया था बापू के पास और कुछ व्यवस्था करने का आश्वासन दे गया था.

दूसरे दिन वह बिरजू के साथा आया। कोठरी के अंदर कुछ गुपचुप बातें हुईं और फिर उसने देखा कि बिरजू बापू को सौ-सौ के दस नोट पकड़ा गया था. मां का इलाज शुरू हो गया था . वह कुछ ठीक भी होने लगी थी. लगभग पंद्रह दिन बीत गए कि बिरजू फिर आया, शिवमंगला के साथ. उस दिन बापू ने उसे बताया कि उन्होंने बिरजू के साथ उसकी शादी तय कर दी है. वह आज उसे लेने आया है.

आंखें छिपाते हुए बापू बोला था, “सोना बेटा, मैंने बहुत बड़ा पाप किया है, जिसकी सजा मुझे भगवान देगा। लेकिन बेटा, यह पाप मुझे तेरी मां के लिए करना पड़ा है. तू मुझे माफ कर देना, बेटा.”

वह बापू से लिपटकर रोई थी फूट-फूटकर. बापू उसके सिर पर हाथ फेरता रहा था, फिर बिरजू से बोला था, “पाहुन, मेरी सोना अभी छोटी है. पंद्रह साल की है. बड़े कष्टों में मैंने इसे पाला है. इसे आप कष्ट न देना.”
चलने से पहले बिरजू ने बापू को आश्वस्त किया था—

जब तक सोना बिरजू के पास रही, मानसिक कष्ट तो उसे भोगने पड़े, लेकिन जीवन की सुख-सुविधा के तमाम साधन उसने जुट रखे थे उसके लिए।

दो साल वह उसके पास रही थी। इन्हीं दो वर्षों में पहले मां और बाद में बापू के चल बसने का समाचार उसे मिला था.

और दो वर्षों बाद— एक दिन शिवमंगला के धमकाने पर उसे बिरजू का घर छोड़ना पड़ा था। उसके बाद शुरू हो गया था उसके बसने और उजड़ने का सिलसिला.

भीखू को बेचते समय भी शिवमंगला ने उसे चेता दिया था कि डेढ़-दो साल से अधिक नहीं रहना है इसके पास। एक दिन वह आएगा और उसे ले जाएगा. शुरू में कुछ महीने वह यह सोचकर रहती रही कि एक दिन उसका साथ भी छोड़ना पड़ेगा. अधिक माया-मोह बढ़ाना ठीक नहीं समझा उसने, लेकिन भीखू का निश्छल प्यार धीरे-धीरे उसे बांधता चला गया और वह महसूस करने लगी कि वह भीखू को कभी छोड़ नहीं पाएगी. इतना प्यार उसे किसी ने न दिया था—चौथे ने भी नहीं. सभी उससे किसी खरीदे माल की तरह जल्दी -से-जल्दी, अधिक-से-अधिक कीमत वसूल कर लेना चाहते. भीखू को उसने सबसे अलग पाया था. जिस अपनत्व-प्यार के लिए वह तरसती आई थी, भीखू ने उसे दिया था. और इसलिए उसने उस दिन अपने अंधे अतीत का एक-एक पृष्ठ खोलकर रख दिया था उसके सामने.

सुनकर भीखू ने जो कुछ कहा था, उससे उसने महसूस किया था कि उसके कष्टों के दिन बीत गए। उसका जीवनतरु अब नई रोशनी में पल्लवित,विकसित और पुष्पित हो सकेगा. भावातिरेकवश वह भीखू के सामने झुक गई थी, उसकी चरणरज माथे से लगाने के लिए, लेकिन भीखू ने उसे पहले ही पकड़ लिया था, “सोना, मैं तुझ पर कोई एहसान थोड़े ही कर रहा हूं. अनपढ़-गंवार जरूर हूं, लेकिन हूं तो इनसान. इनसान होने के नाते उन भेड़ियों से तुझे बचाना मेरा फर्ज है. मेरे पैर छुकर तू मुझे महान मत बना. मैं बस, इनसान ही रहना चाहता हूं.”

प्यार से आंसू उमड़ पड़े थे उसके—- उस क्षण उसने निर्णय किया था —- अब वह उनके डराने-धमकाने के सामने नहीं झुकेगी। भीखू को छोड़कर वह कभी नहीं जाएगी.

उस दिन पान की दुकान के पास दिखने के बाद महावीरा जब दोबारा उसे नहीं दिखा, तो वह कुछ निश्चिंत -सी हो गई थी। कुछ भय भीखू ने कम कर दिया था— और जब भीखू गांव जाने लगा, तब वह बोली थी, “मेरी ज्यादा चिंता न करना तुम. बापू को—-” बात बीच में ही रोक दी थी, क्योंकि डर तब भी उसके अंदर अपने पंजे गड़ा रहा था.

“चिंता तो रहेगी ही, सोना। अगर कोई खतरा दिखे तो पुलिस-थाने की मदद ले लेना.”

शायद भीखू को भी इस बात का डर सता रहा था कि उसके जाने के बाद वे आ सकते हैं—-।

लेकिन जैसे-जैसे एक-एक दिन भीखू के जाने के बाद बिना किसी संकट के कटते चले गए, सोना बिलकुल निश्चिंत होती गई। कोठरी का दरवाजा सांझ ढलने के साथ ही वह बंद कर लिया करती थी. आज भी दरवाजा बंद कर वह भीखू का इंतजार कर रही थी. शायद आखिरी बस से आ जाए—- और जब दरवाजे पर दस्तक हुई, तो दौड़कर उसने दरवाजा खोला. लेकिन भीखू नहीं, सामने शिवमंगला खड़ा था.मुंह से शराब की बदबू छोड़ता हुआ.

“तो रानीजी पति का इंतजार कर रही हैं—-” वह कमरे में घुस आया. वह एक ओर हट गयी. शिवमंगला निश्चिंततापूर्वक चारपाई पर बैठ गया. उसे अवसर मिल गया था. वह तीर की तरह वहां से भाग निकली . सीधे थाने में जाकर ही दम लिया .
****

खट—खट—-खट—-खट—-

उसके कान फिर चौकन्ने हो गए। एक सिपाही चला आ रहा था.

“चलो, थानेदार साब बुला रहे हैं।”

वह उसके पीछे हो चली– ठंड से दोहरी होती हुई.
****

रात-भर चारों सिपाही एक के बाद एक उसके शरीर को नोचते - झिंझोंड़ते रहे। वह चीखती-चिल्लती और तड़पती रही और वे हिंस्र पशु की भांति उसे चिंचोंड़ते रहे— उसके बेहोश हो जाने तक.—.

जब उसे होश आया, वह एक पार्क में पड़ी थी—– और शिवमंगला और महावीरा उसके पास खड़े थे, उसे घेरे। वह पूरी ताकत के साथ चीख उठी और फिर बेहोश हो गई।
****

Tuesday, May 12, 2009

कहानी-२४



यह तो वही है

रूपसिंह चन्देल


अखबार का दूसरा पेज खोलते ही पेज के बायीं ओर नीचे ब्लॉक में छपे समाचार और चित्र को देख रवि बाबू बाबू चौंके थे. उन्हे लगा आंखें धोखा खा रही हैं. ’यह उस व्यक्ति का चित्र नहीं हो सकता. एक ही शक्ल के दो या दो से अधिक लोग होते हैं. यह निश्चित ही उसका हमशक्ल होगा. ’ उन्होंने मोटे लेंस के चश्मे को चार बार उतारा, साफ किया, चढ़ाया और ध्यानपूर्वक चित्र देखने लगे. किसी बड़े हॉल में बैठे लगभग पचास लोग, माईक पर झुका जो व्यक्ति बोलता हुआ दिख रहा था उसके वैसी ही लेनिनकट सफेद दाढ़ी थी जैसी उस व्यक्ति के थी, जिसे वे पचीस वर्षों से जानते थे. उसके बाल भी वैसे ही सफ़ेद थे और ऎसी प्रतीति दे रहे थे कि मानो उसने ’विग’ लगा रख था, उससे वे जब भी कहीं मिले, उन्हें उसके बाल कभी स्वाभाविक नहीं लगे थे. उन्हें सदैव यही लगा कि वह निश्चित ही गंजा होगा, जिसकी असलियत उसकी पत्नी और बच्चे ही जानते होंगे. संभव है वह सोए समय भी ’विग’ लगाकर सोता हो, लेकिन दाढ़ी को लेकर वे असमंजस में थे. वे सोचते, संभव है वह दाढ़ी भी नकली चिपका लेता हो, अपने को भीड़ से अलग दिखलाने के लिए. एक बार उसकी पत्नी सुलोचना ने उनसे कहा था, "रवि बाबू, शिव के दाढ़ी-बाल से कोई भी उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता."

कुछ देर तक मंद मुस्कराने के बाद वे बोले थे --"शिव के साथ आपके विवाह का रहस्य आज----" लेकिन कुछ सोच वे चुप रह गये थे.

लेकिन सुलोचना चुप न रही थी. प्रफुल्लित स्वर में बोली थी, "रवि बाबू, उस दिन बीस दिसंबर का दिन था. कमानी ऑडीटोरियम में बिरजू महाराज का कार्यक्रम था. मैं अपनी सहेली विनीता जिसे हम विनी कहते हैं, उसे आप जानते हैं, के साथ थी . हम कमानी के गेट के पास फुटपाथ पर थे कि सामने से शिव आता दिखा था. पैंट पर काला ओवर कोट, सांवले चेहरे पर दूर से ही चमकती दाढ़ी और सिर पर बलों का टोकरा, सफ़ेद-बिल्कुल भूहा जैसे बाल, कंधे पर लटकता थैला---- आप समझ सकते हैं कि सातवें-आठवें दशक में कैसे थैले लटकाकर चलने का फैशन था युवाओं में---- मैं तो अपलक देखती रह गयी थी उसे. क़द नाटा, लेकिन मुझे लगा था, आप हंसेंगे नहीं रवि बाबू", उसने उनके चेहरे पर नज़रें गड़ा दी थीं, "सच में वह मुझे लेनिन जैसा लगा था और बस----- मैं----" देर तक अतीत सुलोचना की आंखों में फड़फड़ाता रहा था.

"यू नो रवि बाबू, मैं तो सुध-बुध ही खो बैठी थी. पीछे मुड़-मुड़कर शिव को देखती गेट की ओर खिसक रही थी. गति मंद हो गयी थी. विनी ने शायद यह भांप लिया था, वह रुक गयी और बोली थी, ’सुलोचना मैं तुम्हारा परिचय करवा दूं"

"किससे?" मैं नहीं समझ पायी थी कि वह किससे परिचय करवाने की बात कह रही थी.

"तभी शिव----- पूरा नाम तो आप जानते ही हैं---- शिवमान मोहन--- पास आ पहुंचा था. विनी उसे जानती थी. उसने परिचय करवाया, "मेरे भइया के मित्र हैं. कबीर पर काम कर रहे हैं. एक कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक हैं." परिचय के दौरान मैं जमीन पर गड़ी जा रही महसूस करती रही थी , फिर भी कनखियों से शिव को देखती रही थी. और उस दिन के बाद----"

उसके बाद की कहानी रवि बाबू जानते थे.

लेकिन माईक पर झुका हुआ व्यक्ति तो सर्वहारा की चर्चा कर रहा है----- समाचार का शीर्षक तो यही कह रहा था. जबकि उन्होंने जितना शिवमान मोहन को जाना था उसके अनुसार उसका सर्वहारा वर्ग से दूर-दूर का रिश्ता नहीं था.

अखबार सामने फैला रहा और रवि बाबू कुछ देर के लिए अतीत के अंधेरे आकाश में विचरण करने लगे थे.

हिमालय की पहाड़ियों पर बैठी अपने अस्त्र-शस्त्र तैयार करने में व्यस्त शीत लहर के दिल्ली की ओर प्रस्थान करने में अभी कुछ समय था. वह १९७० नवंबर का एक दिन था. कुछ महीनों की मुलाकातों के बाद सुलोचना शिव के ईस्ट पटेल नगर के किराये के मकान में शिफ्ट हो गयी थी. उससे पहले वह विनी के साथ रहती थी. विनी भाई के साथ रहती भी थी और नहीं भी. एक ही मकान में विनी ने भाई से अलग दो कमरे किराये पर ले रखे थे. विनी एक कॉलेज में तीन वर्षों से एडहॉक पढ़ा रही थी, उसने ऎसा इसलिए नहीं किया था कि भाई या भाभी से उसका झगड़ा था. ऎसा दो कारणॊं से था. वह देर रात तक पढ़ती थी. सुबह देर से उठती. कॉलेज सायं का था. वह नहीं चाहती थी कि वह घर के कामों में बिना हाथ बटाये कोई सुविधा स्वीकार करे.भाभी को क्यों कष्ट दे, जिन्हें वह सुबह पांच बजे से भाई -बच्चों की तीमारदारी और दूसरे कामों में थकता देखती थी और उन पर तरस खाती थी. उसने भाई की प्रगतिशीलता का लाभ उठाते हुए स्वयं यह प्रस्ताव किया था कि उस मकान के खाली दो कमरों में, यदि मकान मालिक उन्हें किराये पर देना स्वीकार कर ले तो, वह शिफ्ट हो जाए, जिससे अपना शोध कार्य पूरा करने में उसे सुविधा होगी. उन दो कमरों के साथ किचन भी था. भाई की स्वीकृति तो मिली ही थी, मकान मालिक भी तैयार हो गया था. कुछ दिनों बाद सुलोचना भी उसके साथ आकर रहने लगी थी.

****

दरअसल दोनों ने लखनऊ विश्वविद्यालय से साथ में हिन्दी में एम.ए. किया था. सुलोचना का घर अमीनाबाद में था, जबकि विनी का गोलागंज में. एक प्रकार से मिडिल क्लास से वे साथ थीं. सुलोचना भी नौकरी के लिए हाथ पैर मार रही थी कि तभी उसका परिचय शिवमान मोहन से हो गया. विनी सुलोचना के शिव के साथ जा रहने के विरुद्ध थी. ’शादी कर लो, फिर जाकर रहो, तुम्हारे घरवालों को मैं जाकर मना लूंगी. शिव के घरवालों को मैं नहीं जानती. वे शायद बलिया के किसी गांव में रहते हैं. सुलोचना, किसी को समझने के लिए कुछ महीने पर्याप्त नहीं होते...."

"यही तुम्हारी प्रगतिशीलता है ?" उखड़ गयी थी सुलोचना, "शादी करने के लिए ही साथ रहने जा रही हूं. पहले न सही, दस दिन , दस महीने बाद सही. फिर, किसी को समझने के लिए महीनों की दरकार नहीं होती----- विनी, कुछ क्षण ही पर्याप्त होते हैं."

सुलोचना के उत्तर से अचंभित थी विनीता. समझ नहीं पा रही थी कि जो कुछ वह संकेत में कहना चाह रही थी उसे स्पष्ट कैसे कहे. वह चिंतित हो उठी थी. विचारों के बवंडर मस्तिष्क में हहराते रहे थे. काफ़ी देर बाद वह बोली थी, "कुछ दिन और प्रतीक्षा कर लेने में क्षति नहीं है सुलोचना, भावुकता में हित कम, अहित ही अधिक होता है. समझ से काम लो."

’विनी, तुम मेरे साथ पढ़ी-लिखी. माना कि विद्यार्थियों को पढ़ा रही हो..... कुछ अधिक अक्ल आ गयी होगी, लेकिन-----."

तिलमिला उठी थी विनी. संयम टूट गया था. फिर भी सुस्थिर स्वर में बोली थी, "सुलोचना तुम्हारा जीवन है, जैसा चाहो जियो लेकिन मित्रता का तक़ाजा है कि मैं तुम्हें बता दूं---- " क्षण भर के लिए रुकी वह, सुलोचना के चेहरे पर दृष्टि डाली थी, फिर बोली थी, "तुमसे पहले भी शिव के साथ गौरांगी नाम की एक लड़की रहती थी. पहले वह विश्वविद्यालय होस्टल में रहती थी. पैरेंट्स पटना में थे. यह तीन वर्ष पहले की बात है. गौरांगी पी-एच.डी. की छात्रा थी. वह कहानियां भी लिखती थी. सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग में उसकी कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं. उसकी कहानियां पढ़कर शिव उसे खोजता उसके होस्टल पहुंचा था. कौन अपनी रचनाओं की प्रशंसा सुनकर प्रमुदित नहीं होता! वह भी नया रचनाकार. शिव की बातों से वह प्रभावित हुई थी और ---- और तुम्हारी तरह कुछ ही महीनों में वह शिव के इसी मकान में रहने जा पहुंची थी उसके साथ. बेचारी गौरांगी"-- भावुक हो उठी थी विनी. लंबी आह भरकर बोली थी, "उसका भाई तब हिन्दू कॉलेज में पढ़ता था. आज वह भी शोध कर रहा है. उसने मां-पिता को बुला लिया था. बड़ा हंगामा हुआ था. गौरांगी को वे समझा नहीं पाये थे. लौट गये थे वे पटना हताश-निराश."

"और एक वर्ष शिवमान मोहन के साथ रहने के बाद होस्टल लौट आयी थी गौरांगी. मित्रों में खुस-फुसाहट थी उसके लौटने पर---- शायद झगड़ा---मनमुटाव----’जूठाकर परे खिसका दिया’ जैसे डायलॉग हवा में तैरने लगे थे, लेकिन हर कुचर्चा पर गौरांगी ने विराम लगाते हुए मित्रों से कहा था, "शिव को दो माह के लिए बाहर जाना है. मैं स्वेच्छा से यहां आयी हूं. उसके बिना वहां अकेली रहना नहीं चाहती थी. और यह बताते हुए न वह दुखी थी न भावुक, बिल्कुल तटस्थ थी वह."

"शिव कहीं गया भी था. लेकिन पन्द्रह दिन बाद लौट भी आया था. परन्तु वह गौरांगी से मिलने नहीं आया था. न ही वह विश्वविद्यालय की ओर आया. गौरांगी के किसी मित्र ने उसे कनॉट प्लेस में देखा. गौरांगी को विश्वास नहीं हुआ . वह उसके निवास पर गयी. वह मिला और उसने उसे आश्वस्त किया कि उसे मकान बदलना है. अच्छा मकान किराये पर लेकर वह शीघ्र ही गौरांगी को साथ ले आयेगा और वे किसी मंदिर में शादी कर लेंगे, लेकिन उसका मकान बदलना टलता रहा और गौरांगी की परेशानी बढ़ती गयी थी. और एक दिन------ होस्टल के कमरे के पंखे से लटककर उसने आत्महत्या कर ली थी. उसने जो सुसाइड नोट छोड़ा था, उसमें लिखा था, "अपनी आत्महत्या के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूं." शिव कुछ दिनों तक परेशान तो रहा था. पुलिस उससे बार-बार पूछ-ताछ करती रही थी लेकिन किसी प्रमाण के अभाव में वह बच गया था.

"पोस्ट मार्टम रपट में गौरांगी के गर्भवती होने की पुष्टि हुई थी. पांच माह का गर्भ था उसे." बात समाप्त कर विनी ने प्रश्नात्मक भाव से सुलोचना की ओर देखा था.

"शिव ने यह सब बता दिया है." ठंडे स्वर में सुलोचना बोली थी, "विनी, मैं गौरांगी नहीं हूं. उसने यदि मेरे साथ विश्वासघात किया तो मैं नहीं वही आत्महत्या करेगा."

विनी ने मौन धारण करना ही उचित समझा था और उसी शाम सुलोचना शिवमान मोहन के साथ चली गयी थी.

****

लेकिन जैसा कि सुलोचना ने कहा था, वह गौरांगी की भांति कमज़ोर नहीं थी. शिव को उससे विवाह करना पड़ा था. और शिव भी जानता था कि उसने कोई गलत निर्णय नहीं किया था. शिव के साथ जाने से पूर्व ही सुलोचना को गृहमंत्रालय में ’असिस्टेंट’ के पद के लिए चयन-पत्र मिल चुका था. उसके लिए दोहरी ख़ुशी थी. शिव के साथ विवाह के निर्णय पर घरवालों ने विरोध किया था. बीस वर्षों तक उनसे संबंध नहीं रहे थे. इस दौरान मां की मृत्यु हुई थी. सुलोचना नौकरी में और दोनों बेटों के पालन-पोषण में व्यस्त रही थी. बीस वर्षों बाद उसके दोनों छोटे भाई उससे मिलने दिल्ली आये थे. तब वह पटेल नगर के बजाय वैशाली अपने मकान में पहुंच चुकी थी. लखनऊ से तार पुनः जुड़ गये थे. शिव के साथ वह पिता से मिल आयी थी और उसने रवि बाबू को बताया था कि शिव से मिलकर उसके पिता प्रसन्न हुए थे. एक सप्ताह दोनों बच्चों के साथ वहां वहां रहे थे.

अगले पंद्रह वर्षों में सुलोचना के पिता की आर्थिक स्थिति खराब होती गयी थी. दोनों भाई बेकार थे. उनकी शादी न कर पाने की चिंता थी पिता को. बेकार और फ्रस्ट्रेटेड भाई प्रायः पिता से झगड़ते रहते थे. पिता की आय का श्रोत उत्तर प्रदेश खाद्य निगम से निदेशक के रूप में अवकाश पाने के बाद मिलनेवाली पेंशन थी और था किरायेदारों से मिलनेवाल पैसा, जो न के बराबर था. घर में कलह का वातावरण था.

शिव और सुलोचना बच्चों की जि़म्मेदारियों से मुक्त हो चुके थे. दोनों बेटे बंगलौर में इंजीनियर थे. दोनों की अपनी नौकरी थी. संपन्नता उनके आगे-पीछे घूमती थी. अचानक पिता बीमार हो गये थे. उनके करुण पत्र से अभिभूत सुलोचना शिव के साथ लखनऊ गयी थी और दोनों पूरे साढ़े तीन महीने वहां रहे थे. नौ मार्च से तेईस जून तक. मुक्तहस्त हो शिव ने ससुर की सेवा में पैसा खर्च किया था. प्रसन्न थे सुलोचना के पिता प्रतापनारायण.

और वे सुलोचना और शिव से इतना प्रसन्न हुए थे कि हवेलीनुमा मकान उन्होंने अपने बाद केवल देखभाल करने के लिए सुलोचना के नाम कर दिया था. भाइयों को पता चला तो गृहकलह ने रौद्र रूप ले लिया. दिनभर युद्ध की सी स्थिति रहने लगी थी. शिव और सुलोचना पिता की ओर से मोर्चा संभाले रहते थे. लेकिन पिता मोर्चा हारते जा रहे थे. वह और अधिक बीमार होते गये थे.

शिव और सुलोचना चौबीस को दिल्ली लौटे और पचीस को उन्हें प्रतापनारायण की मृत्यु का समाचार मिला था. उसी रात दोनों लखनऊ के लिए रवाना हुए. क्रिया-कर्म काल में दोनों भाइयों के साथ सुलोचना का मोर्चा खुला रहा था. जो कुछ हो रहा था वह किरायेदारों के लिए अनुकूल था. उनके अपने हिस्से पक्के थे. निकाले भी गये तो कुछ लेकर ही जायेंगे यह सभी ने तय कर लिया था. प्रतापनारायण के क्रिया कर्म के लिए ठहरने के दौरान शिव ने लखनऊ के एक बिल्डर से एक करोड़ में मकान का सौदा कर लिया था. लेकिन सुलोचना को बताया नहीं था. दोनों दिल्ली पहुंचे ही थे कि सप्ताह बीतते न बीतते सुलोचना को सूचना मिली कि छोटे भाई ने आत्महत्या कर ली है.

"यह सब क्या हो रहा है शिव?" सुलोचना ने शिवमान मोहन से पूछा था.

"उनका प्रारब्ध ! तुम कर क्या सकती हो!"

"हमें जाना चाहिए. आखिर, वह मेरा छोटा भाई था."

देर तक चुप रहने और सुलोचना के चेहरे पर नज़रें गड़ाये रहने के बाद शिव बोला था, "फिर सोचना क्या?” कुछ देर के बाद उपयुक्त अवसर पा वह फिर बोला, "सुलोचना बताना भूल गया था. अन्यथा न लेना. एक बिल्डर से बात हुई थी. उसने मकान देखा था. कल उसका फोन आया था. खरीदना चाहता है. शायद शॉपिंग कॉंप्लेक्स बनाना चाहता है. जल्दी ही रजिस्ट्री करवाना चाहता है. हम चल तो रहे ही हैं. तुम चाहो तो----."

"शिव, पिता जी ने मकान मेरे नाम इसलिए नहीं किया था कि हम उसे बेच दें. बेच तो वे भी सकते थे-----."

शिव चुप रहा था. ऎसे अवसरों पर वह चुप ही रहता था.

"गौरव चला गया. बेवकूफ था. आत्महत्या करने की क्या आवश्यकता थी. लेकिन रघु है अभी. मकान मैं उसे दे दूंगी. उसका विवाह करूंगी. वही तो बचा है......"फूटफूटकर रोने लगी थी सुलोचना.

मकान रघु को देने और उसका विवाह करने की सुलोचना की बात से हिल उठा था शिव. "भावुक मत हो सुलोचना. तुम्हें बताना उचित समझता हूं. बिल्डर ने बताया है कि रघु का कहीं अता-पता नहीं है. क्या पता उसने भी----."

चीख उठी थी सुलोचना और देर तक शिवमान मोहन के चेहरे की ओर टुकुर-टुकुर देखती रही थी. अचानक उसके सामने विनीता का चेहरा घूम गया था. लेकिन कुछ बोल नहीं पायी थी. अपने को बहुत बोल्ड समझने वाली वह प्रायः शिव के सामने हथियार डाल देती रही थी.

****

बिल्डर को मकान बेचने के दो महीने बाद ही सुलोचना की भी मृत्यु हो गयी थी. रवि बाबू को शिव ने बताया था कि सुलोचना दो वर्षों से ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित थी. धूमधाम से उसका क्रिया-कर्म किया था शिव ने. उसकी तेहरवीं के दिन गांधी भवन में दिनभर साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था. सुलोचना कविताएं लिखती थी जिसकी जानकारी भी उसी दिन रवि बाबू को हुई थी. उसके दो कविता संग्रह दस दिनों के अंदर प्रकाशित करवाये गये थे. दोनों का विमोचन उस दिन हिन्दी के दो वरिष्ठ कवियों ने किया था. कई बड़े आलोचकों, कवियों और प्रगतिशील लोगों ने सुलोचना को महान कवियत्री, और पति-पत्नी को ग़रीबों के लिए जीनेवाला संघर्षशील-क्रान्तिकारी दंपति बताया था. उन पर बनाया गया एक वृत्तचित्र भी वहां दिखाया गया था, जिसमें साक्षात्कार में एक प्रश्न के उत्तर में शिव के बगल में बैठी सुलोचना कह रही थी, "मैं शिव को कबीर के रूप में देखना चाहती थी.लेकिन------."

एक कबूतर खुले दरवाज़े से घुस आया था और पर फड़फड़ाता बाहर निकलने के लिए पंखे के चारों ओर चक्कर काटने लगा था. रविबाबू की चेतना लौट आयी थी और वे अख़बार में समाचार पढ़ने लगे थे, "बीस नवंबर , नयी दिल्ली, ’भारतीय सर्वहारा संघर्ष समिति’ के महासचिव शिवमान मोहन ने भरत के सर्वहारा वर्ग का आह्वान करते हुए कहा कि पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियों को कुचलने के लिए उन्हें एकजुट होने की आवश्यकता है. पूंजीवादी शक्तियां उदारीकरण के नाम पर -----" और रविबाबू सोचने लगे कि यह तो वही है----- वही शिवमान मोहन, सुलोचना का पति----- जिससे वे वर्षों से परिचित हैं-- लेकिन पहचान नहीं पाये---- शायद इसलिए कि उनकी आंखों पर बड़े फ्रेम का मोटे लेंसवाला चश्मा चढ़ा हुआ था. ’कैसी कायापलट है यह’ उन्होंने सोचा था.

रविबाबू का मन कसैला हो उठा. उन्होंने अखबार उठाकर एक ओर फेंक दिया और सोचने लगे कि इस देश में आज ऎसे छद्मवेशी ही सब प्रकार से सफल हैं. उन्होम्ने दीर्घ निश्वास ली और आंखें बंद कर लीं. उन्हें एक दैत्याकार आकृति उभरती हुई प्रतीत हुई. वे उसे पहचानने का प्रयत्न करने लगे . वह शिवमान मोहन की थी---- नहीं किसी अंडरवर्ल्ड डॉन की----- किसी राजनेता की----- बुश की ---- ब्लेयर की----- और तभी उन्हें लगा कि उसमें वे सभी समाहित थे----- आकृति फैलती जा रही थी, सुलोचना के पिता, भाई----- गौरांगी---- गुजरात---- बिहार---- मऊ---- ईराक और-------.

Saturday, April 18, 2009

कहानी-२३



(ठूंठ कहानी वर्ष २००८ में लिखी गई और ’दि सण्डे पोस्ट के कहानी विशेषांक’ में प्रकाशित होने के साथ ही वेब पत्रिका ’साहित्य शिल्पी’ ने इसे अपने १७।०४।२००९ के अंक में प्रकाशित किया)

ठूंठ

रूपसिंह चन्देल

"अरे, चाच्चा ---- आप----?" किर्र की आवाज के साथ लाल रंग की होंडा सिटी उनके बगल में रुकी तो वह चौंक उठे.

"चाच्चा, आपने अपना कुछ अता-पता ही नहीं दिया----- कितना खोजा! कब से-----!"
उन्होंने बीच में ही टोका, "कोई खास बात?"
"खास बात हो तभी आदमी अपनों को खोजता है?" लहजे में शिकायत थी, "आपने शक्तिनगर क्या छोड़ा, लगा जैसे दिल्ली ही छोड़ दी . मेरा अनुमान था कि आप होंगे इसी महानगर में, लेकिन----- शक्तिनगर के आपके मकान मालिक ने एक फोन नम्बर दिया था-----." उसने उनकी ओर देखा . वह निर्विकार-निरपेक्ष उसकी ओर देख रहे थे.
"नम्बर मिलाकर थक गया----- एम.टी.एन.एल. से पता किया, उनके रिकार्ड में वह दर्ज ही न था." वह क्षणभर के लिए रुका, "चाच्चा, गांव-घर के लोगों को तो बता ही देना चाहिए----- लेकिन-----."

उसकी ओर देर तक देखते रहने के बाद सधे स्वर में वह बोले, "मंगतराम, कुछ दिनों के लिए एकांत चाहता था----- बस्स."
"यह भी क्या बात हुई----- दिल्ली जैसे महानगर में एकांत? क्या आपको एकांत मिला? मेरा अनुमान है, शक्तिनगर छोड़े आपको चार वर्षों से अधिक हो गया होगा----- आपने कितने दिन एकांत में बिताए?"
उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया. उसके प्रश्न का उत्तर उनके पास था भी नहीं. सच यही था कि एक दिन भी वह एकांत का सुख नहीं उठा सके थे. उठाते, तब जीते कैसे! मुकम्मल काम नहीं था. प्रकाशकों के लिए काम करके थक चुके थे, लेकिन वह वही काम कर सकते थे. पिछले चार वर्षों से वह 'गुजराती एण्ड सन्स' के लिए धार्मिक ग्रंथों के आधार पर अंग्रेजी में छोटी पुस्तकें लिख रहे थे. 'गुजराती एण्ड सन्स' की शाखा ही थी पटेलनगर---- दिल्ली में. उसका हेडक्वार्टर अमेरिका के 'ज्यू जर्सी' में था, जहां से वह पूरे अमेरिका में उन पुस्तकों की सप्लाई करता था. न केवल धार्मिक पुस्तकें वहां बेचता था, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों से संबन्धित सामग्री , यहां तक कि कफन तक का अमेरिका में एक मात्र बिक्रेता था 'गुजराती एण्ड सन्स' का मालिक शंभूभाई पटेल.
शंभूभाई पटेल की एक बार दिल्ली यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात उससे हुई थी और उन्होंने हिन्दी प्रकाशकों के काम छोड़कर उसका काम स्वीकार कर लिया था, क्योंकि वहां दूसरों की अपेक्षा उचित पारिश्रमिक मिलता और समय से मिलता था. शंभूभाई पटेल ने पहली मुलाकात में ही शर्त रखी थी, "जनार्दन भाई" वह सभी को गुजराती समझकर बात करता, "आप किसी भी प्रकाशक को यह नहीं बताएगें कि आप मेरे लिए काम कर रहे हैं. आपको पटेलनगर आने की आवश्यकता न होगी. मेरा बंदा आपसे काम ले आया करेगा और भुगतान का चेक भी दे आया करेगा."

"कोई परेशानी नहीं."
इस प्रकार जनार्दन शाह न केवल दूसरे प्रकाशकों से कटते गये थे, बल्कि - मित्रों-परिचितों से भी दूर होते गये थे. शक्तिनगर जैसे पॉश इलाके को छोड़ वह वाणी विहार चले गये और परिचितों से बिल्कुल ही अलग-थलग हो गये.
'लेकिन यह मंगतराम झूठ बोल रहा है. इस जैसे इंसान ने मुझे खोजने की कोशिश की होगी?---असंभव----." उन्होंने सोचा.
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मंगतराम जनार्दन शाह के गांव का था. नौकरी की तलाश में वह दिल्ली आया तो सीधे उनके यहां पहुंचा. गांव में उनके विषय में चर्चा थी कि दिल्ली में उनका बड़ा कारोबार है------ किताबें छापने का. हालांकि उनके पिता ने गांव वालों से कई बार कहा भी कि वह किताबें नहीं छापते बल्कि किताबें छापने वालों के लिए काम करते हैं . लेकिन गांववाले उनकी बातों को हवा में उड़ा देते, "चाचा, यही तो आपका बड़प्पन है. जनार्दन भइया बड़े आदमी बन गये हैं. सुना है बड़े-बड़े लोगन ते उनकी पहचान है----- मंत्री -संत्री तक जानते हैं."
जनार्दन के पिता जानते थे कि वह गांव वालों को कितना भी क्यों न समझायें लेकिन वे जनार्दन के विषय में अपनी धारणा बदलने वाले नहीं. और तभी एक दिन दरियागंज के एक प्रकाशक के पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम को टेलीविजन में दिखाया गया. प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने पुस्तक का लोकार्पण किया था और जनार्दन प्रधानमंत्री के पास खड़े गांववालों को दिख गये थे.
"अरे, यो निरंजनशाह का बेटा जनार्दनवा है रे." ग्राम प्रधान की चौपाल पर टी.वी. देख रहे ग्रामीणों में से एक चीखा था, "हां रे भइया ----- कैसे हंसि-हंसि कै बातैं करि रहा है-----!"
"वाह भइया, मानि गये. किस्मत चमकि गै निरंजन शाह की."
गांव में ग्राम प्रधान के यहां ही टी.वी. था----- ग्राम पंचायत का. रात सोने से पहले घर-घर जनार्दन की ही चर्चा रही थी और सुबह निरंजन शाह के दरवाजे लोग उन्हें बधाई देने पहुंचने लगे थे. भौंचक थे निरंजन शाह. उन्हें भी लगने लगा था कि जनार्दन उनसे अवश्य कुछ छुपाता है. निश्चित ही उसके संबन्ध बड़े लोगों से हैं----- लेकिन जब भी उन्होंने उससे अपने गठिया के इलाज के लिए दिल्ली ले जाने का प्रस्ताव किया उसने यह कहकर उनकी बात टाल दी थी, "पिता जी , एक कमरा है किराये का----- छत पर. बाथरूम और टॉयलेट कमरे से दूर छत के दूसरे छोर पर हैं. बरसात में छत पारकर वहां तक जाना होता है और सीमेंट के चादरों की उनकी छतें टपकती हैं."
गांववालों की बधाई ने बेटे के विषय में निरंजन शाह के मन में आशंका उत्पन्न कर दी थी. और उन्हीं दिनों टी.वी. समाचार से प्रेरित मंगतराम उनके पास एक दिन गया और बोला, "चाचा , वैष्णों देवी जाना चाहता हूं. लौटते हुए दिल्ली घूमने की इच्छा है. जनार्दन भइया के हाल भी लेता आऊंगा----- पता-----."
निरजंन शाह को बेटे की वास्तविक स्थिति जानने का इससे अच्छा अवसर अन्य क्या हो सकता था. जनार्दन का पता मंगतराम को देते हुए कहा था, "लौटते समय जनार्दन को भी सथ लेते आना बेटा. दो साल हो गये उसे गांव आए."
जनार्दन को साथ ले आने का वायदा करके दिल्ली घूमने गया मंगतराम स्वयं लौटकर गांव नहीं गया. दरअसल वह वैष्णों देवी नही, दिल्ली ही गया था नौकरी की खोज में और सीधे जनार्दन के यहां पहुंचा था. उसने जनार्दन से अपने आने का उद्देश्य स्पष्ट कर दिया था और यह भी कि उन्हीं के भरोसे वह दिल्ली आया था और उनके अतिरिक्त उसका कोई अन्य ठिकाना भी नहीं. अंदर से परेशान जनार्दन ऊपर से सामान्य बने रहे थे. गर्मी के दिन थे. दिन में पत्नी, बेटी, और मंगतराम के साथ जनार्दन कमरे में सिमटे रहते और प्रकाशकों से लाये प्रूफ पढ़ते रहते, जबकि मंगतराम बीच-बीच में गांव में उनके विषय में होने वाली चर्चा छेड़ उनके काम में बाधा पहुंचाता रहता. स्वभाववश वह उसे कुछ कह नहीं पाते. रात में सोने के लिए खुली छत थी. कोई परेशानी न होती. यह सिलसिला एक महीना से अधिक चला, लेकिन इसी मध्य उन्होंने एक परिचित के माध्यम से मंगतराम को कमलानगर के एक बैंक के कर्मचारियों के लिए चाय सप्लाई करने का काम दिलवा दिया. चाय बनाने के लिए बैंक में छोटी-सी जगह भी उसे मिल गयी थी. स्टोव खरीदने से लेकर चाय-चीनी - बिस्कुट आदि के लिए जनार्दन ने उसकी सहायता की. मंगतराम का काम चल निकला तो दो महीने के बाद उन्होंने उसे शास्त्रीनगर में रहने के लिए एक सस्ता कमरा किराये पर दिलवा दिया. लगभग दो वर्षों तक मंगतराम प्रतिदिन शाम बैंक से लौटते हुए रात में उनके यहां आता और प्रायः उन्हीं के साथ भोजन करके जाता. लेकिन उसके बाद यह सिलसिला कम होकर एक दिन बंद हो गया था. कुछ दिनों बाद उसके विषय में उन्हें जो सूचना मिली वह चौंकाने वाली थी.

मंगतराम बैंक में चाय बनाने का काम बंद कर कहीं चला गया था.बैंक के कई कर्मचारी परेशान थे उसके अचानक गायब हो जाने से. उन्होंने जिस परिचित के माध्यम से उसे वहां रखवाया था उसने उन्हें उन बैंक-कर्मियों की परेशानी का कारण जब बताया तब वह और अधिक परेशान हो उठे थे.
रचनाकार परिचय:-
१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं। अब तक उनकी ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ६ उपन्यास जिसमें से 'रमला बहू', 'पाथरटीला', 'नटसार' और 'शहर गवाह है' - अधिक चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघु-कहानी संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त बहुचर्चित पुस्तक 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' (जीवनी) संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित से प्रकाशित हुई है।उन्होंने रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुराद' का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में 'संवाद प्रकाशन' मेरठ से प्रकाशित हुआ है।सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन

दो चिट्ठे- रचना समय और वातायन
मंगतराम कई कर्मियों से दस-दस हजार रुपये लेकर गायब हुआ था.उसने बहुत ही कौशल का प्रदर्शन किया था. एक से इस शर्त पर रुपये उधार लिए कि एक माह में पांच प्रतिशत ब्याज सहित रुपये वह उन्हें लौटा देगा. लेने वाले से उसने अनुरोध किया कि वह इस बात की चर्चा किसी अन्य से नहीं करेगा-----"साहब, इज्जत का सवाल है." उसने हाथ जोड़कर कहा था. एक महीना बाद दूसरे से उसी शर्त पर उधार लेकर उसने पहले वाले को लौटा दिया था ब्याज सहित. इस प्रकार वह एक से लेता, फिर दूसरे से लेकर पहले का चुकता कर देता. ऎसा उसने कई महीनों तक किया और सभी कर्मियों का विश्वास जीत लिया. और एक दिन उसने एक साथ दस या ग्यारह कर्मियों से उधार लिए और एक सप्ताह बाद शास्त्रीनगर का कमरा छोड़ कहीं चला गया. जब पन्द्रह दिनों तक वह बैंक नहीं पहुंचा तब उनके परिचित उसके विषय में जानकारी लेने उनके घर पहुंचे थे. उसे उधार देने वाले उसके विरुद्ध पुलिस में इसलिए रपट नहीं लिखा सकते थे, क्योंकि उनके पास उधार देने का कोई प्रमाण न था और एक अनजान व्यक्ति को बैंक की जगह पर चाय बानाने के लिए जगह देना भी गैर कानूनी था. उधार देने वाले अपने स्तर पर उसकी तलाश करते रहे . उन्होंने भी गांव में पिता को लिख जानना चाहा, लेकिन मंगतराम गांव नहीं गया था.
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मंगतराम दिल्ली में ही था. उसने दक्षिण दिल्ली के एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान की कैण्टीन का ठेका ले लिया था. स्वयं गांव नहीं गया, लेकिन घरवालों को अपनी सूचना दे दी थी. घर से तार जुड़ गये थे, लेकिन उसने घर वालों को मना कर दिया था कि वे गांववालों को उसके विषय में कुछ नहीं बतायेगें ----- और न ही किसी रिश्तेदार को. एक दिन वह स्वयं गांव आकर सबको चैंका देगा. मायके जाने के बहाने उसने पत्नी को दिल्ली बुला लिया था. पत्नी भी कैण्टीन में उसका हाथ बटाने लगी थी.

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गांव से जाने के लगभग आठ वर्ष बाद मंगतराम गांव में प्रकट हुआ. तब तक उसने एक सरकारी दफ्तर की कैण्टीन का ठेका भी ले लिया था. एक को पत्नी देखती और दूसरे को वह स्वयं संभालता .
जब वह गांव पहुंचा तब तक गांव में जनार्दन की 'बड़ा व्यक्ति' होने की छवि धूमिल पड़ चुकी थी. गांव वालों को उनसे गांव में जिस करिश्मे की आशा थी वह कुछ भी न दिखा था. अब मंगतराम उनका हीरो था. उसने वांववालों को अपने व्यवसाय की जानकारी नहीं दी, जबकि उसके रहन-सहन और खेत खरीदने की उसकी चर्चा से सभी ने अनुमान लगाया कि उसने इतने दिनों में खासा पैसा कमा लिया था. गांव के उसके साथी दिनभर उसके आगे-पीछे और उसके लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते. शाम उसकी चौपाल में जमघट होता और पास के कस्बे से मंगवाई गयी कच्ची की बोतलें खाली होती रहतीं.
वह एक सप्ताह गांव में ठहरा और उसने तीन गरीब किसानों के दस बीघा खेतों का सौदा तय कर लिया. बयाना दे दिया. चार महीने में रजिस्ट्री का निश्चय कर वह दिल्ली लौट गया. खेतों की रजिस्ट्री के दौरान उसकी दृष्टि पड़ोसी अनंत मिश्र के एक बीघा के उस घेर पर टिक गयी जो उसके घर के बायीं ओर था. घेर में अनंत के जानवर बांधे जाते थे और मंगतराम का छोटा-सा घर अनंत के घर और घेर के बीच में था.
मंगतराम के घर की भी एक कहानी है.
अनंत के पिता और मंगतराम के पिता अच्छे मित्र थे. मंगतराम के पिता संतराम शुक्ल पुरोहिती का काम करते थे. कठिनाई से गुजर होती. परिवार में बेटा मंगतराम, एक बेटी और पत्नी थे. रहने के लिए छोटी-सी झोपड़ी थी. झोपड़ी के नाम पर एक कोठरी . कोठरी के बाहर फूस का छप्पर, जो प्रतिवर्ष बरसात से पहले बदला जाता था. कोठरी के साथ एक और दीवार खड़ी करके छप्पर के नीचे रसोई बनाई गयी थी. दिनभर परिवार छप्पर के नीचे पड़ा रहता. बरसात और जाड़े में ही वे कोठरी में सोते. अनंत के पिता से मित्र का कष्ट देखा नहीं गया. गांव के घेर का लगभग साठ वर्ग गज का टुकड़ा उन्होंने संतराम को दे दिया. गांव के कुछ जजमानों और अनंत के पिता की सहायता से संतराम ने उसमें कच्ची ईटों की दो कोठरियां और रसोई बना ली. संतराम को घेर का हिस्सा देने के लगभग दो वर्ष बाद अनंत के पिता का देहांत हो गया था.
अपनी दूसरी यात्रा के दौरान मंगतराम ने एक दिन अनंत से घेर खरीदने की अपनी इच्छा व्यक्त की. उसमें वह बड़ा मकान बनाना चाहता था. अनंत के लिए यह अचम्भित करने वाला प्रस्ताव था. उसने इंकार कर दिया. मंगतराम ने इसे चुनौती के रूप में लिया. उसने निश्चय किया कि वह उस घेर पर कब्जा करके ही रहेगा. और इसका अवसर उसे तब मिला जब उसके पिता की मृत्यु हुई.
हुआ यह कि उसके पिता अकस्मात बीमार पड़े. उसकी मां की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी और बहन ससुराल जा चुकी थी. पिता अकेले थे. सामान्य-सी सर्दी-जुकाम ने जब एक दिन गंभीर रूप धारण कर लिया तब संतराम ने बेटे को सूचना दी. मंतगराम पत्नी के साथ दौड़ा आया. उसने घर में ही कस्बे के डाक्टर से पिता का इलाज करवाया, लेकिन वह स्वस्थ नहीं हुए. मंगतराम के गांव पहुंचने के तीसरे दिन रात में उसके पिता ने अंतिम सांसे लीं. जैसे ही पिता ने आंखें बंद कीं और उनकी सांस थमी, मंगतराम ने पत्नी के सहयोग से उन्हें ठीक घर में प्रवेश करनेवाले दरवाजे के सामने आंगन में जमीन पर बिना कुछ बिछाये लेटा दिया. पत्नी कुछ समझती उससे पहले ही दरवाजे की ओट में रखी लाठी उठा ली और पत्नी को धमकाते हुए कहा, "खबरदार जो रोयी------." हिचकियां लेती पत्नी को उसका दूसरा आदेश था, "जब मैं कहूंगा तब बुक्का फाड़कर रोना."

पत्नी भौंचक आंखे फाड़ उसे देख रही थी और मंगतराम के हाथों की लाठी पर पकड़ मजबूत होती जा रही थी. उसने मृत पिता के हाथ-पैरों पर कई प्रहार किये. हाथ-पैरों की हड्डियां तोड़ उसने लाठी अनंत के घेर में फेंक दी और लाठी पकड़ने के लिए प्रयुक्त दस्तानों को गैस चूले में जला दिया. फिर घुटी आवाज में रोती पत्नी को चीखकर रोने का आदेश दे स्वयं चीखकर रोने लगा, "मार डाला रे------अरे मेरे बापू को मार डाला ------ दौड़ो----- बचाओ-----गांव वालों----संज्जू, रत्ते-----."
पांच मिनट में गांव एकत्र हो गया था. आंगन में संतराम की लाश देख अड़ोस-पड़ोस की औरतें भी दहाड़ मारकर रोने लगीं. "किसने मारा------ किसने?"
"अरे कौन मारता----- पड़ोसी ही दुश्मन बन बैठा. मैंने इस अनंत से घेर की बात आज शाम फिर चलाई थी----- कुछ देर पहले वह लाठी लेकर धमकाने आ गया. बापू उस समय पेशाब करने जाने के लिए उठा था. मैंने अनंता को कहा भी कि आगे चर्चा नहीं करूंगा, लेकिन वह मेरी आवाज सुनते ही भड़क उठा. उसने मुझे निशाना साध लाठी चलाई. मैं हट गया और बाहर सड़क पर आ गया. पत्नी कोठरी मे जा घुसी. अरे मुझे क्या पता था कि वह मेरे बीमार बापू पर टूट पड़ेगा. उसने ताबड़-तोड़ लाठियां उन पर भांज डालीं----- हाथ पैर तोड़ दिये उनके." मंगतराम पिता की लाश से चिपक गया. देर तक रोता रहा, फिर लड़खड़ाता-सा खड़ा हो बोला, "आप सबको यकीन न हो तो उसके घेर में देख लें ----- जाते हुए उसने लाठी घेर में फेक दी थी." वह फिर रोने लगा, "हाय मेरे बापू---- मैं तुम्हें बचा न पाया. एक राक्षस ने तुम्हारी जान ले ली------ बापू जब तक उसे फांसी के फंदे तक न पहुंचाया मुझे चैन नहीं मिलेगी." वह चीख रहा था.

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पुलिस आयी. अनंत मिश्र गिरफ्तार हुआ. मंगतराम ने थानेदर को चालीस हजार रुपये दिये थे. पोस्ट मार्टम रेपोर्ट में लिखा गया कि लाठी के प्रहार से ही हाथ-पैर टूटे थे, लेकिन संतराम की मृत्यु प्रहार से पहले हुई थी या बाद में इस विषय में कुछ नहीं कहा गया था. इसके बाद की कहानी छोटी है. छोटी इसलिए कि मंगतराम ने अनंत के सामने फिर एक प्रस्ताव भेजा था-------समझौते का. मुकदमा वापस ले लेने का और भयभीत अनंत ने समझौता करना उचित समझा था. समझौता गुप्त था, जिसमें केवल थानेदार शामिल हुआ था. थानेदार ने अनंत से चालीस हजार लेकर मामले को कमजोर बनाया था, पोस्ट मार्टम रेपोर्ट का कोई उल्लेख नहीं था उसमें और मंगतराम ------ उसने जैसा जाहा था वही करना पड़ा था अनंत को. चार बीघा खेत और घेर की मुफ्त रजिस्ट्री शामिल थी उसमें.
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"चाच्चा------- कभी आप मेरे गरीबखाने में आयें." मंगतराम बोला तो वह चौंकें थे.
"हुंह-----." जनार्दन शाह इतना ही बोल पाये.
"यह रहा मेरा पता------ सेक्टर बासठ में है कोठी, "उसने विजिटिगं कार्ड निकालकर देते हुए कहा, "नोएडा, दूर नहीं है चाच्चा------ आप आदेश देगें तो गाड़ी भेजवा दूंगा."
जनार्दन ने उसके 'कोठी' शब्द पर गौर किया था.
"बताउंगा." बुदबुदाए थे जनार्दन.
"फिर मिलते हैं ------चाच्चा." गाड़ी में धंसता हुआ मंगतराम बोला और सर्र की आवाज के साथ गाड़ी दौड़ गयी थी. वह कुछ देर तक ट्रैफिक के बीच गुम होती उसकी गाड़ी को देखते रहे, फिर 'पिच्च' से सड़क पर थूक फुटपाथ पर चढ़ गये थे.
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