Tuesday, May 12, 2009

कहानी-२४



यह तो वही है

रूपसिंह चन्देल


अखबार का दूसरा पेज खोलते ही पेज के बायीं ओर नीचे ब्लॉक में छपे समाचार और चित्र को देख रवि बाबू बाबू चौंके थे. उन्हे लगा आंखें धोखा खा रही हैं. ’यह उस व्यक्ति का चित्र नहीं हो सकता. एक ही शक्ल के दो या दो से अधिक लोग होते हैं. यह निश्चित ही उसका हमशक्ल होगा. ’ उन्होंने मोटे लेंस के चश्मे को चार बार उतारा, साफ किया, चढ़ाया और ध्यानपूर्वक चित्र देखने लगे. किसी बड़े हॉल में बैठे लगभग पचास लोग, माईक पर झुका जो व्यक्ति बोलता हुआ दिख रहा था उसके वैसी ही लेनिनकट सफेद दाढ़ी थी जैसी उस व्यक्ति के थी, जिसे वे पचीस वर्षों से जानते थे. उसके बाल भी वैसे ही सफ़ेद थे और ऎसी प्रतीति दे रहे थे कि मानो उसने ’विग’ लगा रख था, उससे वे जब भी कहीं मिले, उन्हें उसके बाल कभी स्वाभाविक नहीं लगे थे. उन्हें सदैव यही लगा कि वह निश्चित ही गंजा होगा, जिसकी असलियत उसकी पत्नी और बच्चे ही जानते होंगे. संभव है वह सोए समय भी ’विग’ लगाकर सोता हो, लेकिन दाढ़ी को लेकर वे असमंजस में थे. वे सोचते, संभव है वह दाढ़ी भी नकली चिपका लेता हो, अपने को भीड़ से अलग दिखलाने के लिए. एक बार उसकी पत्नी सुलोचना ने उनसे कहा था, "रवि बाबू, शिव के दाढ़ी-बाल से कोई भी उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता."

कुछ देर तक मंद मुस्कराने के बाद वे बोले थे --"शिव के साथ आपके विवाह का रहस्य आज----" लेकिन कुछ सोच वे चुप रह गये थे.

लेकिन सुलोचना चुप न रही थी. प्रफुल्लित स्वर में बोली थी, "रवि बाबू, उस दिन बीस दिसंबर का दिन था. कमानी ऑडीटोरियम में बिरजू महाराज का कार्यक्रम था. मैं अपनी सहेली विनीता जिसे हम विनी कहते हैं, उसे आप जानते हैं, के साथ थी . हम कमानी के गेट के पास फुटपाथ पर थे कि सामने से शिव आता दिखा था. पैंट पर काला ओवर कोट, सांवले चेहरे पर दूर से ही चमकती दाढ़ी और सिर पर बलों का टोकरा, सफ़ेद-बिल्कुल भूहा जैसे बाल, कंधे पर लटकता थैला---- आप समझ सकते हैं कि सातवें-आठवें दशक में कैसे थैले लटकाकर चलने का फैशन था युवाओं में---- मैं तो अपलक देखती रह गयी थी उसे. क़द नाटा, लेकिन मुझे लगा था, आप हंसेंगे नहीं रवि बाबू", उसने उनके चेहरे पर नज़रें गड़ा दी थीं, "सच में वह मुझे लेनिन जैसा लगा था और बस----- मैं----" देर तक अतीत सुलोचना की आंखों में फड़फड़ाता रहा था.

"यू नो रवि बाबू, मैं तो सुध-बुध ही खो बैठी थी. पीछे मुड़-मुड़कर शिव को देखती गेट की ओर खिसक रही थी. गति मंद हो गयी थी. विनी ने शायद यह भांप लिया था, वह रुक गयी और बोली थी, ’सुलोचना मैं तुम्हारा परिचय करवा दूं"

"किससे?" मैं नहीं समझ पायी थी कि वह किससे परिचय करवाने की बात कह रही थी.

"तभी शिव----- पूरा नाम तो आप जानते ही हैं---- शिवमान मोहन--- पास आ पहुंचा था. विनी उसे जानती थी. उसने परिचय करवाया, "मेरे भइया के मित्र हैं. कबीर पर काम कर रहे हैं. एक कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक हैं." परिचय के दौरान मैं जमीन पर गड़ी जा रही महसूस करती रही थी , फिर भी कनखियों से शिव को देखती रही थी. और उस दिन के बाद----"

उसके बाद की कहानी रवि बाबू जानते थे.

लेकिन माईक पर झुका हुआ व्यक्ति तो सर्वहारा की चर्चा कर रहा है----- समाचार का शीर्षक तो यही कह रहा था. जबकि उन्होंने जितना शिवमान मोहन को जाना था उसके अनुसार उसका सर्वहारा वर्ग से दूर-दूर का रिश्ता नहीं था.

अखबार सामने फैला रहा और रवि बाबू कुछ देर के लिए अतीत के अंधेरे आकाश में विचरण करने लगे थे.

हिमालय की पहाड़ियों पर बैठी अपने अस्त्र-शस्त्र तैयार करने में व्यस्त शीत लहर के दिल्ली की ओर प्रस्थान करने में अभी कुछ समय था. वह १९७० नवंबर का एक दिन था. कुछ महीनों की मुलाकातों के बाद सुलोचना शिव के ईस्ट पटेल नगर के किराये के मकान में शिफ्ट हो गयी थी. उससे पहले वह विनी के साथ रहती थी. विनी भाई के साथ रहती भी थी और नहीं भी. एक ही मकान में विनी ने भाई से अलग दो कमरे किराये पर ले रखे थे. विनी एक कॉलेज में तीन वर्षों से एडहॉक पढ़ा रही थी, उसने ऎसा इसलिए नहीं किया था कि भाई या भाभी से उसका झगड़ा था. ऎसा दो कारणॊं से था. वह देर रात तक पढ़ती थी. सुबह देर से उठती. कॉलेज सायं का था. वह नहीं चाहती थी कि वह घर के कामों में बिना हाथ बटाये कोई सुविधा स्वीकार करे.भाभी को क्यों कष्ट दे, जिन्हें वह सुबह पांच बजे से भाई -बच्चों की तीमारदारी और दूसरे कामों में थकता देखती थी और उन पर तरस खाती थी. उसने भाई की प्रगतिशीलता का लाभ उठाते हुए स्वयं यह प्रस्ताव किया था कि उस मकान के खाली दो कमरों में, यदि मकान मालिक उन्हें किराये पर देना स्वीकार कर ले तो, वह शिफ्ट हो जाए, जिससे अपना शोध कार्य पूरा करने में उसे सुविधा होगी. उन दो कमरों के साथ किचन भी था. भाई की स्वीकृति तो मिली ही थी, मकान मालिक भी तैयार हो गया था. कुछ दिनों बाद सुलोचना भी उसके साथ आकर रहने लगी थी.

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दरअसल दोनों ने लखनऊ विश्वविद्यालय से साथ में हिन्दी में एम.ए. किया था. सुलोचना का घर अमीनाबाद में था, जबकि विनी का गोलागंज में. एक प्रकार से मिडिल क्लास से वे साथ थीं. सुलोचना भी नौकरी के लिए हाथ पैर मार रही थी कि तभी उसका परिचय शिवमान मोहन से हो गया. विनी सुलोचना के शिव के साथ जा रहने के विरुद्ध थी. ’शादी कर लो, फिर जाकर रहो, तुम्हारे घरवालों को मैं जाकर मना लूंगी. शिव के घरवालों को मैं नहीं जानती. वे शायद बलिया के किसी गांव में रहते हैं. सुलोचना, किसी को समझने के लिए कुछ महीने पर्याप्त नहीं होते...."

"यही तुम्हारी प्रगतिशीलता है ?" उखड़ गयी थी सुलोचना, "शादी करने के लिए ही साथ रहने जा रही हूं. पहले न सही, दस दिन , दस महीने बाद सही. फिर, किसी को समझने के लिए महीनों की दरकार नहीं होती----- विनी, कुछ क्षण ही पर्याप्त होते हैं."

सुलोचना के उत्तर से अचंभित थी विनीता. समझ नहीं पा रही थी कि जो कुछ वह संकेत में कहना चाह रही थी उसे स्पष्ट कैसे कहे. वह चिंतित हो उठी थी. विचारों के बवंडर मस्तिष्क में हहराते रहे थे. काफ़ी देर बाद वह बोली थी, "कुछ दिन और प्रतीक्षा कर लेने में क्षति नहीं है सुलोचना, भावुकता में हित कम, अहित ही अधिक होता है. समझ से काम लो."

’विनी, तुम मेरे साथ पढ़ी-लिखी. माना कि विद्यार्थियों को पढ़ा रही हो..... कुछ अधिक अक्ल आ गयी होगी, लेकिन-----."

तिलमिला उठी थी विनी. संयम टूट गया था. फिर भी सुस्थिर स्वर में बोली थी, "सुलोचना तुम्हारा जीवन है, जैसा चाहो जियो लेकिन मित्रता का तक़ाजा है कि मैं तुम्हें बता दूं---- " क्षण भर के लिए रुकी वह, सुलोचना के चेहरे पर दृष्टि डाली थी, फिर बोली थी, "तुमसे पहले भी शिव के साथ गौरांगी नाम की एक लड़की रहती थी. पहले वह विश्वविद्यालय होस्टल में रहती थी. पैरेंट्स पटना में थे. यह तीन वर्ष पहले की बात है. गौरांगी पी-एच.डी. की छात्रा थी. वह कहानियां भी लिखती थी. सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग में उसकी कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं. उसकी कहानियां पढ़कर शिव उसे खोजता उसके होस्टल पहुंचा था. कौन अपनी रचनाओं की प्रशंसा सुनकर प्रमुदित नहीं होता! वह भी नया रचनाकार. शिव की बातों से वह प्रभावित हुई थी और ---- और तुम्हारी तरह कुछ ही महीनों में वह शिव के इसी मकान में रहने जा पहुंची थी उसके साथ. बेचारी गौरांगी"-- भावुक हो उठी थी विनी. लंबी आह भरकर बोली थी, "उसका भाई तब हिन्दू कॉलेज में पढ़ता था. आज वह भी शोध कर रहा है. उसने मां-पिता को बुला लिया था. बड़ा हंगामा हुआ था. गौरांगी को वे समझा नहीं पाये थे. लौट गये थे वे पटना हताश-निराश."

"और एक वर्ष शिवमान मोहन के साथ रहने के बाद होस्टल लौट आयी थी गौरांगी. मित्रों में खुस-फुसाहट थी उसके लौटने पर---- शायद झगड़ा---मनमुटाव----’जूठाकर परे खिसका दिया’ जैसे डायलॉग हवा में तैरने लगे थे, लेकिन हर कुचर्चा पर गौरांगी ने विराम लगाते हुए मित्रों से कहा था, "शिव को दो माह के लिए बाहर जाना है. मैं स्वेच्छा से यहां आयी हूं. उसके बिना वहां अकेली रहना नहीं चाहती थी. और यह बताते हुए न वह दुखी थी न भावुक, बिल्कुल तटस्थ थी वह."

"शिव कहीं गया भी था. लेकिन पन्द्रह दिन बाद लौट भी आया था. परन्तु वह गौरांगी से मिलने नहीं आया था. न ही वह विश्वविद्यालय की ओर आया. गौरांगी के किसी मित्र ने उसे कनॉट प्लेस में देखा. गौरांगी को विश्वास नहीं हुआ . वह उसके निवास पर गयी. वह मिला और उसने उसे आश्वस्त किया कि उसे मकान बदलना है. अच्छा मकान किराये पर लेकर वह शीघ्र ही गौरांगी को साथ ले आयेगा और वे किसी मंदिर में शादी कर लेंगे, लेकिन उसका मकान बदलना टलता रहा और गौरांगी की परेशानी बढ़ती गयी थी. और एक दिन------ होस्टल के कमरे के पंखे से लटककर उसने आत्महत्या कर ली थी. उसने जो सुसाइड नोट छोड़ा था, उसमें लिखा था, "अपनी आत्महत्या के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूं." शिव कुछ दिनों तक परेशान तो रहा था. पुलिस उससे बार-बार पूछ-ताछ करती रही थी लेकिन किसी प्रमाण के अभाव में वह बच गया था.

"पोस्ट मार्टम रपट में गौरांगी के गर्भवती होने की पुष्टि हुई थी. पांच माह का गर्भ था उसे." बात समाप्त कर विनी ने प्रश्नात्मक भाव से सुलोचना की ओर देखा था.

"शिव ने यह सब बता दिया है." ठंडे स्वर में सुलोचना बोली थी, "विनी, मैं गौरांगी नहीं हूं. उसने यदि मेरे साथ विश्वासघात किया तो मैं नहीं वही आत्महत्या करेगा."

विनी ने मौन धारण करना ही उचित समझा था और उसी शाम सुलोचना शिवमान मोहन के साथ चली गयी थी.

****

लेकिन जैसा कि सुलोचना ने कहा था, वह गौरांगी की भांति कमज़ोर नहीं थी. शिव को उससे विवाह करना पड़ा था. और शिव भी जानता था कि उसने कोई गलत निर्णय नहीं किया था. शिव के साथ जाने से पूर्व ही सुलोचना को गृहमंत्रालय में ’असिस्टेंट’ के पद के लिए चयन-पत्र मिल चुका था. उसके लिए दोहरी ख़ुशी थी. शिव के साथ विवाह के निर्णय पर घरवालों ने विरोध किया था. बीस वर्षों तक उनसे संबंध नहीं रहे थे. इस दौरान मां की मृत्यु हुई थी. सुलोचना नौकरी में और दोनों बेटों के पालन-पोषण में व्यस्त रही थी. बीस वर्षों बाद उसके दोनों छोटे भाई उससे मिलने दिल्ली आये थे. तब वह पटेल नगर के बजाय वैशाली अपने मकान में पहुंच चुकी थी. लखनऊ से तार पुनः जुड़ गये थे. शिव के साथ वह पिता से मिल आयी थी और उसने रवि बाबू को बताया था कि शिव से मिलकर उसके पिता प्रसन्न हुए थे. एक सप्ताह दोनों बच्चों के साथ वहां वहां रहे थे.

अगले पंद्रह वर्षों में सुलोचना के पिता की आर्थिक स्थिति खराब होती गयी थी. दोनों भाई बेकार थे. उनकी शादी न कर पाने की चिंता थी पिता को. बेकार और फ्रस्ट्रेटेड भाई प्रायः पिता से झगड़ते रहते थे. पिता की आय का श्रोत उत्तर प्रदेश खाद्य निगम से निदेशक के रूप में अवकाश पाने के बाद मिलनेवाली पेंशन थी और था किरायेदारों से मिलनेवाल पैसा, जो न के बराबर था. घर में कलह का वातावरण था.

शिव और सुलोचना बच्चों की जि़म्मेदारियों से मुक्त हो चुके थे. दोनों बेटे बंगलौर में इंजीनियर थे. दोनों की अपनी नौकरी थी. संपन्नता उनके आगे-पीछे घूमती थी. अचानक पिता बीमार हो गये थे. उनके करुण पत्र से अभिभूत सुलोचना शिव के साथ लखनऊ गयी थी और दोनों पूरे साढ़े तीन महीने वहां रहे थे. नौ मार्च से तेईस जून तक. मुक्तहस्त हो शिव ने ससुर की सेवा में पैसा खर्च किया था. प्रसन्न थे सुलोचना के पिता प्रतापनारायण.

और वे सुलोचना और शिव से इतना प्रसन्न हुए थे कि हवेलीनुमा मकान उन्होंने अपने बाद केवल देखभाल करने के लिए सुलोचना के नाम कर दिया था. भाइयों को पता चला तो गृहकलह ने रौद्र रूप ले लिया. दिनभर युद्ध की सी स्थिति रहने लगी थी. शिव और सुलोचना पिता की ओर से मोर्चा संभाले रहते थे. लेकिन पिता मोर्चा हारते जा रहे थे. वह और अधिक बीमार होते गये थे.

शिव और सुलोचना चौबीस को दिल्ली लौटे और पचीस को उन्हें प्रतापनारायण की मृत्यु का समाचार मिला था. उसी रात दोनों लखनऊ के लिए रवाना हुए. क्रिया-कर्म काल में दोनों भाइयों के साथ सुलोचना का मोर्चा खुला रहा था. जो कुछ हो रहा था वह किरायेदारों के लिए अनुकूल था. उनके अपने हिस्से पक्के थे. निकाले भी गये तो कुछ लेकर ही जायेंगे यह सभी ने तय कर लिया था. प्रतापनारायण के क्रिया कर्म के लिए ठहरने के दौरान शिव ने लखनऊ के एक बिल्डर से एक करोड़ में मकान का सौदा कर लिया था. लेकिन सुलोचना को बताया नहीं था. दोनों दिल्ली पहुंचे ही थे कि सप्ताह बीतते न बीतते सुलोचना को सूचना मिली कि छोटे भाई ने आत्महत्या कर ली है.

"यह सब क्या हो रहा है शिव?" सुलोचना ने शिवमान मोहन से पूछा था.

"उनका प्रारब्ध ! तुम कर क्या सकती हो!"

"हमें जाना चाहिए. आखिर, वह मेरा छोटा भाई था."

देर तक चुप रहने और सुलोचना के चेहरे पर नज़रें गड़ाये रहने के बाद शिव बोला था, "फिर सोचना क्या?” कुछ देर के बाद उपयुक्त अवसर पा वह फिर बोला, "सुलोचना बताना भूल गया था. अन्यथा न लेना. एक बिल्डर से बात हुई थी. उसने मकान देखा था. कल उसका फोन आया था. खरीदना चाहता है. शायद शॉपिंग कॉंप्लेक्स बनाना चाहता है. जल्दी ही रजिस्ट्री करवाना चाहता है. हम चल तो रहे ही हैं. तुम चाहो तो----."

"शिव, पिता जी ने मकान मेरे नाम इसलिए नहीं किया था कि हम उसे बेच दें. बेच तो वे भी सकते थे-----."

शिव चुप रहा था. ऎसे अवसरों पर वह चुप ही रहता था.

"गौरव चला गया. बेवकूफ था. आत्महत्या करने की क्या आवश्यकता थी. लेकिन रघु है अभी. मकान मैं उसे दे दूंगी. उसका विवाह करूंगी. वही तो बचा है......"फूटफूटकर रोने लगी थी सुलोचना.

मकान रघु को देने और उसका विवाह करने की सुलोचना की बात से हिल उठा था शिव. "भावुक मत हो सुलोचना. तुम्हें बताना उचित समझता हूं. बिल्डर ने बताया है कि रघु का कहीं अता-पता नहीं है. क्या पता उसने भी----."

चीख उठी थी सुलोचना और देर तक शिवमान मोहन के चेहरे की ओर टुकुर-टुकुर देखती रही थी. अचानक उसके सामने विनीता का चेहरा घूम गया था. लेकिन कुछ बोल नहीं पायी थी. अपने को बहुत बोल्ड समझने वाली वह प्रायः शिव के सामने हथियार डाल देती रही थी.

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बिल्डर को मकान बेचने के दो महीने बाद ही सुलोचना की भी मृत्यु हो गयी थी. रवि बाबू को शिव ने बताया था कि सुलोचना दो वर्षों से ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित थी. धूमधाम से उसका क्रिया-कर्म किया था शिव ने. उसकी तेहरवीं के दिन गांधी भवन में दिनभर साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था. सुलोचना कविताएं लिखती थी जिसकी जानकारी भी उसी दिन रवि बाबू को हुई थी. उसके दो कविता संग्रह दस दिनों के अंदर प्रकाशित करवाये गये थे. दोनों का विमोचन उस दिन हिन्दी के दो वरिष्ठ कवियों ने किया था. कई बड़े आलोचकों, कवियों और प्रगतिशील लोगों ने सुलोचना को महान कवियत्री, और पति-पत्नी को ग़रीबों के लिए जीनेवाला संघर्षशील-क्रान्तिकारी दंपति बताया था. उन पर बनाया गया एक वृत्तचित्र भी वहां दिखाया गया था, जिसमें साक्षात्कार में एक प्रश्न के उत्तर में शिव के बगल में बैठी सुलोचना कह रही थी, "मैं शिव को कबीर के रूप में देखना चाहती थी.लेकिन------."

एक कबूतर खुले दरवाज़े से घुस आया था और पर फड़फड़ाता बाहर निकलने के लिए पंखे के चारों ओर चक्कर काटने लगा था. रविबाबू की चेतना लौट आयी थी और वे अख़बार में समाचार पढ़ने लगे थे, "बीस नवंबर , नयी दिल्ली, ’भारतीय सर्वहारा संघर्ष समिति’ के महासचिव शिवमान मोहन ने भरत के सर्वहारा वर्ग का आह्वान करते हुए कहा कि पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियों को कुचलने के लिए उन्हें एकजुट होने की आवश्यकता है. पूंजीवादी शक्तियां उदारीकरण के नाम पर -----" और रविबाबू सोचने लगे कि यह तो वही है----- वही शिवमान मोहन, सुलोचना का पति----- जिससे वे वर्षों से परिचित हैं-- लेकिन पहचान नहीं पाये---- शायद इसलिए कि उनकी आंखों पर बड़े फ्रेम का मोटे लेंसवाला चश्मा चढ़ा हुआ था. ’कैसी कायापलट है यह’ उन्होंने सोचा था.

रविबाबू का मन कसैला हो उठा. उन्होंने अखबार उठाकर एक ओर फेंक दिया और सोचने लगे कि इस देश में आज ऎसे छद्मवेशी ही सब प्रकार से सफल हैं. उन्होम्ने दीर्घ निश्वास ली और आंखें बंद कर लीं. उन्हें एक दैत्याकार आकृति उभरती हुई प्रतीत हुई. वे उसे पहचानने का प्रयत्न करने लगे . वह शिवमान मोहन की थी---- नहीं किसी अंडरवर्ल्ड डॉन की----- किसी राजनेता की----- बुश की ---- ब्लेयर की----- और तभी उन्हें लगा कि उसमें वे सभी समाहित थे----- आकृति फैलती जा रही थी, सुलोचना के पिता, भाई----- गौरांगी---- गुजरात---- बिहार---- मऊ---- ईराक और-------.